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जस्टिन ट्रूडो की राजनीति में कनाडा के सिख इतने अहम क्यों हैं?

BBC Hindi
शुक्रवार, 22 सितम्बर 2023 (07:49 IST)
जस्टिन ट्रूडो जब वर्ष 2015 में पहली बार कनाडा के पीएम बने तो उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में ये कहा था कि भारत की मोदी सरकार से ज़्यादा उनकी कैबिनेट में सिख मंत्री हैं। उस समय ट्रूडो ने कैबिनेट में चार सिखों को शामिल किया था। ये कनाडा की राजनीति के इतिहास में पहली बार हुआ था।
 
फ़िलहाल प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के संसद में दिए एक बयान के बाद भारत के साथ कनाडा के रिश्ते गंभीर संकट में पहुँचते दिख रहे हैं।
 
जस्टिन ट्रूडो ने बीते सोमवार को संसद में खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के पीछे भारत सरकार का हाथ होने की आशंका जताई, जिसके बाद दोनों देशों ने एक-दूसरे के शीर्ष राजनयिकों को निष्कासित कर दिया।
 
कनाडा के साथ भारत के रिश्तों में खालिस्तान की वजह से संबंधों में उतार-चढ़ाव पहले भी आते रहे हैं, लेकिन इससे पहले कभी ये इतना आगे नहीं बढ़े थे कि संसद में तनाव का ज़िक्र हो।
 
हालांकि, जब-जब कनाडा के सिखों के बीच ट्रूडो की लोकप्रियता की बात होती है, तो सवाल खालिस्तान समर्थकों पर उनके नरम रुख़ को लेकर भी किए जाते हैं।
 
भारत सरकार लंबे समय से कनाडा को खालिस्तानी अलगाववादियों पर कार्रवाई करने के लिए कहती रही है।
 
भारत का मानना है कि ट्रूडो सरकार अपने वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखते हुए खालिस्तान पर नरम है। विदेश मंत्री एस। जयशंकर भी ये दावा कर चुके हैं।
 
एक नज़र जस्टिन ट्रूडो के अब तक के सफ़र और इसमें कनाडा के सिखों की ख़ास भूमिका पर।
 
ट्रूडो के लिए क्यों ज़रूरी हैं सिख
जस्टिन ट्रूडो महज़ 44 साल की उम्र में पहली बार कनाडा के प्रधानमंत्री बने थे। साल 2019 में वो दोबारा इस कुर्सी पर बैठे लेकिन उस वक़्त तक उनकी लोकप्रियता काफ़ी कम हो चुकी थी।
 
2019 में कोरोना महामारी आई। ट्रूडो की लिबरल पार्टी को भरोसा था कि इस महामारी से निपटने में उनकी काबिलियत को देखते हुए हाउस ऑफ़ कॉमन्स (कनाडा की संसद का निचला सदन) में उन्हें आसानी से बहुमत मिल जाएगा।
 
वर्ष 2019 में समय से पहले चुनाव कराए गए। ट्रूडो की लिबरल पार्टी की 20 सीटें कम हो गईं। लेकिन इसी चुनाव में जगमीत सिंह के नेतृत्व वाली न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को 24 सीटें मिली थीं।
 
वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक़, जगमीत सिंह पार्टी के नेता बनने से पहले खालिस्तान की रैलियों में शामिल होते थे।
 
ट्रिब्यून इंडिया ने एक ख़बर में इस स्थिति का ज़िक्र करते हुए विश्लेषकों के हवाले से लिखा है, "ट्रूडो के प्रधानमंत्री बने रहने के लिए जगमीत सिंह का समर्थन बहुत ज़रूरी हो गया था। शायद ये भी एक बड़ी वजह है कि ट्रूडो सिखों को नाराज़ करने का ख़तरा मोल नहीं ले सकते थे।"
 
"ट्रूडो एक ऐसी सरकार चला रहे हैं, जिसे बहुमत नहीं है लेकिन जगमीत सिंह का समर्थन हासिल है। राजनीति में बने रहने के लिए ट्रूडो को जगमीत सिंह की ज़रूरत है। जगमीत सिंह को अब ट्रूडो के ऐसे भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर देखा जाता है, जो हर मुश्किल वक़्त में उनके साथ खड़ा हो।"
 
कनाडा की आबादी में सिख 2.1 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखते हैं। पिछले 20 सालों में कनाडा के सिखों की आबादी दोगुनी हुई है। इनमें से अधिकांश भारत के पंजाब से शिक्षा, करियर, नौकरी जैसे कारणों से ही वहां पहुंचे हैं। अब सवाल ये है कि अल्पसंख्यक सिख कनाडा की राजनीति में इतनी अहम क्यों हैं।
 
ट्रिब्यून इंडिया की एक रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने कहा है, "सिखों की एक ख़ासियत ये है कि एक समुदाय के तौर पर वो एकजुट हैं, उनमें संगठनात्मक कौशल है, वो मेहनती हैं और पूरे देश में गुरुद्वारों की ज़बरदस्त नेटवर्किंग के ज़रिए वो अच्छा-ख़ासा फंड जुटा लेते हैं। चंदा एक वो पहलू है जो सिखों और गुरुद्वारों को किसी भी कनाडाई राजनेता के लिए सपोर्ट सिस्टम बना देता है।"
 
वैनकुवर, टोरंटो, कलगैरी सहित पूरे कनाडा में गुरुद्वारों का एक बड़ा नेटवर्क है।
 
वैनकुवर सन में कुछ साल पहले डफ़लस टॉड ने एक लेख लिखा। इसके अनुसार, "वैनकुवर, टोरंटो और कलगैरी के बड़े गुरुद्वारों में सिखों का जो धड़ा जीतता है, वो अक्सर अपने पैसों और प्रभाव का इस्तेमाल कुछ लिबरल और एनडीपी के चुनावी उम्मीदवारों को समर्थन देने में करता है।"
 
भारत-कनाडा के रिश्तों में तनाव को लेकर वॉशिंगटन पोस्ट ने एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें यूनिवर्सिटी ऑफ़ कलगैरी के रिलीजन डिपार्टमेंट में पढ़ाने वाले हरजीत सिंह ग्रेवाल ने कनाडा सिखों की पसंद होने के पीछे की वजह समझाई है।
 
वो कहते हैं, "भारत-पाकिस्तान के 1947 में बँटवारे के बाद जो अस्थिरता आई, उसने पंजाब के सिखों को पलायन के लिए मजबूर किया। हालांकि, सिख ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जाकर भी बसे लेकिन उनकी बड़ी संख्या में कनाडा पहुँची, क्योंकि यहाँ के नैतिक-सामाजिक मूल्यों में ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखा।"
 
आज कनाडा के समाज और राजनीति में सिखों की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) के अध्यक्ष जगमीत सिंह सिख हैं। वो भारत में सिखों के साथ बर्ताव पर कई बार खुलकर बोलते रहे हैं। वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार अपने बयानों की वजह से ही जगमीत सिंह को साल 2013 में भारत का वीज़ा नहीं दिया गया था।
 
'नेता बनने के लिए ही पैदा हुए हैं'
जस्टिन ट्रूडो जब केवल चार महीने के थे, तब उस वक़्त के अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने ये भविष्यवाणी की थी कि ये बच्चा एक दिन अपने पिता के नक्शेकदम पर चलेगा।
 
वर्ष 1972 की बात है, जब रिचर्ड निक्सन कनाडा के आधिकारिक दौरे पर थे। इस दौरान गाला डिनर के आयोजन में उन्होंने अपने कनाडाई समकक्ष से कहा, "आज रात हम औपचारिकताएं छोड़ देंगे। मैं ये जाम कनाडा के भविष्य के प्रधानमंत्री के नाम करता हूं, जस्टिन पियर ट्रूडो के नाम करता हूं।"
 
सीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, उस समय पियर ट्रूडो ने कहा था, "मैं उम्मीद करता हूं कि इनमें (जस्टिन ट्रूडो) राष्ट्रपति का कौशल और आकर्षण हो।"
 
जस्टिन ट्रूडो के पिता पियर ट्रूडो का 1980 के दशक तक कनाडा की राजनीति में दबदबा रहा। पियर ट्रूडो वर्ष 1968 से 1979 और फिर 1980 से 1984 के बीच कनाडा के पीएम रहे।
 
राजनीति से दूर बीता जस्टिन का बचपन
जस्टिन ट्रूडो का अधिकांश बचपन राजनीति से दूर रहा। उन्होंने मैकगिल यूनिवर्सिटी और फिर यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया से पढ़ाई की और फिर टीचर बने।
 
वर्ष 1998 में जस्टिन ट्रूडो के छोटे भाई माइकल की ब्रिटिश कोलंबिया में हुए हिमस्खलन में मौत हो गई। इस आपदा के बाद उनकी भूमिका से उन्होंने लोगों का ध्यान खींचा। दरअसल, वो एवलांच सेफ़्टी के प्रवक्ता बन गए।
 
इसके दो साल बाद जब उनके पिता का 80 वर्ष की आयु में निधन हुआ तो ट्रूडो ने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर भाषण दिया। उनके इस भाषण को काफ़ी सराहा गया और उसी समय कई लोगों को उनके अंदर प्रधानमंत्री बनने की संभावना की झलक भी दिखी।
 
ट्रूडो ने सोफ़ी ग्रीजोर से 2004 में शादी की। दोनों की तीन संतान हैं। हालांकि, इसी साल ट्रूोड और उनकी पत्नी ने अलग होने का एलान किया।
 
राजनीतिक पारी की शुरुआत
जस्टिन ट्रूडो पिता के निधन के बाद राजनीति में सक्रिय हुए। वो साल 2008 में पहली बार सांसद चुने गए।शुरुआत से ही लिबरल पार्टी को जस्टिन ट्रूडो में एक नेता दिखा। ट्रूडो 2011 में फिर से सांसद चुने गए।
 
लिबरल पार्टी की अगुआई करने की उनकी ख्वाहिश कई बार अधूरी रहने के बाद ट्रूडो ने 2012 में पार्टी लीडरशिप के लिए चुनाव लड़ने का अपना इरादा साफ़ कर दिया।
 
चुनावी अभियान के दौरान उनके विरोधी कम अनुभव की वजह से ट्रूडो की आलोचना करते रहे। यही आलोचना उन्हें आम चुनाव से पहले भी झेलनी पड़ी। लेकिन ट्रूडो बड़े अंतर से आम चुनाव जीते।
 
भारत सरकार के साथ पहले भी दिखा तनाव
नरेंद्र मोदी के पीएम रहते जस्टिन ट्रूडो 2018 में पहली बार भारत के सात दिवसीय दौरे पर आए तब भी काफ़ी विवाद हुआ था। तब विदेशी मीडिया ने अपनी रिपोर्ट्स में कहा था कि ट्रूडो के स्वागत में भारत ने उदासनीता दिखाई।
 
मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था कि कि भारत ने ऐसा सिख अलगाववादियों से कनाडा की सहानुभूति के कारण किया। इस दौरे पर जस्टिन ट्रूडो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर भी गए थे।
 
2018 में जस्टिन ट्रूडो की कैबिनेट में तीन सिख मंत्री थे। इन्हीं मंत्रियों में से रक्षा मंत्री हरजीत सज्जन थे। सज्जन अब भी ट्रूडो की कैबिनेट में हैं और उन्होंने अपने प्रधानमंत्री के बयान का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत समेत किसी भी देश का हस्तक्षेप कनाडा में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
 
सज्जन को 2017 में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ख़ालिस्तान समर्थक कहा था। हालांकि सज्जन ने सिंह के इस दावे को बकवास बताया था।
 
भारत को तब भी ठीक नहीं लगा था जब ओंटेरियो असेंबली ने भारत में 1984 के सिख विरोधी दंगे की निंदा में एक प्रस्ताव पास किया था। कनाडा में ख़ालिस्तान समर्थकों की योजना स्वतंत्र पंजाब के लिए एक जनमत संग्रह कराने की रही है।
 
पहले भी विवादों में आए ट्रूडो
जस्टिन ट्रूडो 2015 में कनाडा में 'असल बदलाव' जैसे कई प्रगतिशील वादों के साथ जीतकर पीएम बने। कनाडा के दो दर्जन से अधिक स्वतंत्र शिक्षाविदों ने माना कि अपने पहले कार्यकाल में ट्रूडो ने 92 फ़ीसदी वादों को आंशिक या पूरी तरह से निभाया।
 
जस्टिन ट्रूडो का दूसरा कार्यकाल एक डिप्लोमैटिक वाकये के साथ शुरू हुआ। उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप का मज़ाक उड़ाया और ये मामला कैमरा में दर्ज हो गया। जवाब में ट्रंप ने ट्रूडो को 'पाखंडी' बता दिया।
 
इसके कुछ महीने बाद जब मीडिया ने उनसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अमेरिका में उस समय हो रहे प्रदर्शन पर कोई सवाल किया तो ट्रूडो 20 सेकंड से भी ज़्यादा तक चुप रहे। ये वीडियो ख़ूब वायरल हुआ।
 
पिछले साल बाली में हुए जी-20 समिट के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और जस्टिन ट्रूडो का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें दोनों नेताओं के बीच नोक-झोंक होती दिखी।
 
अंग्रेज़ी भाषा में उनके कहे को अनुवाद करने वाले शख्स को ये कहते हुए सुना गया, "हमारे बीच जो भी चर्चा हुई वो अख़बारों में लीक हो गई, ये ठीक नहीं है... और बातचीत का ये कोई तरीका नहीं था।
 
यदि आप सच्चे हैं, तो हमें एक-दूसरे के साथ सम्मानजनक तरीके से संवाद करना चाहिए, नहीं तो यह कहना मुश्किल होगा कि नतीजा क्या होगा।"
 
इसके बाद कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो आराम से जवाब देते दिखे, "कनाडा में हम स्वतंत्र और खुली बातचीत में यकीन रखते हैं और हम ऐसा आगे भी जारी रखेंगे।"
 
कोरोना महामारी ट्रूडो की सबसे बड़ी परीक्षा रही। कनाडा के लिए 18 महीने बेहद मुश्किल भरे थे।
 
जब उन्होंने समय से पहले चुनाव कराए तो माना गया कि कनाडा अब बीती बातों से आगे निकल गया है। लेकिन इस चुनाव के नतीजे लिबरल पार्टी के लिए झटका साबित हुई। अगर उन्हें जगमीत सिंह का समर्थन नहीं मिलता, तो ट्रूडो के राजनीति भविष्य पर ख़तरा हो सकता था।
 

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