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नज़रिया: जेएनयू में हार के बाद क्या होगी संघ की रणनीति

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सोमवार, 17 सितम्बर 2018 (12:25 IST)
- अपूर्वानंद (राजनीतिक विश्लेषक)
 
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ में जगह बनाने में नाकाम रही है। मीडिया के लिए यह ख़बर किसी विधानसभा चुनाव से कम महत्व की नहीं थी। चुनाव में छात्र संघ के अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों के मशहूर वाद-विवाद से लेकर मतदान और मतों की गिनती और फिर परिणाम की घोषणा, पल-पल की ख़बर मीडिया ले और दे रहा था।
 
 
जेएनयू को भले ही व्यंग्यपूर्वक "द रिपब्लिक ऑफ़ जेएनयू" कहा जाए, इस गणतंत्र में स्वीकृति की तमन्ना सबसे बड़े देश भक्त को भी रहती ही है। जब देश ने वामपंथ को ठुकरा दिया तो जेएनयू ही इसे पनाह दिए हुए है।
 
इसे जेएनयू का राष्ट्र के विरुद्ध अपराध माना जाता है। कुछ इसे जेएनयू का वैचारिक पिछड़ापन भी मानते हैं। पिछले सालों में यह तक कहा गया है कि देश के लोगों के पैसे पर जेएनयू के छात्र अय्याशी करते हैं। पूछने वालों ने यहाँ तक पूछा है कि आख़िर पांच साल तक पीएचडी करते रहने की काहिली क्यों!
 
साल 2016 के बाद से इस पर भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रियों से लेकर शासक दल के हर स्तर के नेता ने हमला किया है। केन्द्रीय गृहमंत्री ने तो सीमा पार सक्रिय आतंकवादी समूहों से जेएनयू के वामपंथी छात्र नेताओं के सीधे रिश्ते की खुफ़िया जानकारी का दावा तक किया था।
 
जेएनयू की इमेज
जेएनयू को देश को तोड़ने का सपना देखने वालों, "शहरी नक्सल या माओवादियों" आदि का पनाहगाह तक बताया गया है। मानो यह कोई जंगल या बीहड़ हो जहाँ देशद्रोही छिपकर षड्यंत्र करते रहते हैं इसलिए इस क़िले को ध्वस्त करना राष्ट्रीय कर्तव्य है।
 
 
सेना तो नहीं भेजी गई इस दुर्ग का भेदन करने के लिए लेकिन पूर्व सैनिक ज़रूर गए और उन्होंने कुलपति को बताया कि कैसे इस बाग़ी को क़ाबू में लाया जा सकता है। जितना ध्यान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी का पाकिस्तान पर रहता है, आनुपातिक रूप से जेएनयू पर उससे कम नहीं रहता।
 
 
पिछले तीन वर्षों में इस धुंआधार प्रचार का नतीजा यह है कि गाँव गाँव में यह मानने वालों की संख्या कम नहीं कि इसे बंद कर देना चाहिए। आख़िर अपने ही पैसे पर अपनी थाली में छेद करने वालों को तो मूर्ख ही पालते हैं!
 
 
आरएसएस की चिंता
जेएनयू एक ग्रंथि है, एक कांप्लेक्स है जिससे आरएसएस और उसके सभी संगठन पिछले चालीस साल से बुरी तरह पीड़ित हैं। एक मित्र ने बताया कि बिहार के मिथिलांचल के एक गाँव में संघ के एक स्वयंसेवक ने उन्हें कहा कि जेएनयू पर कब्ज़ा हमारा लक्ष्य है।
 
 
इसका एक कारण तो यह रहा है कि जेएनयू में विज्ञान के विभागों के बावजूद इसकी पहचान मानविकी और समाज विज्ञान के कारण है। उसमें भी यह अपने इतिहासकारों की वजह से स्कूली स्तर तक प्रसिद्ध है। अगर स्कूली इतिहास बोध की बात करें तो जेएनयू की भूमिका उसमें केंद्रीय रही है।
 
 
रोमिला थापर और बिपन चंद्र दो छोर हैं, प्राचीन भारत और आधुनिक भारत की कहानी गढ़ने में। जेएनयू के ये दो नाम आरएसएस को दुस्स्वप्न की तरह सताते हैं। न सिर्फ़ इन्होंने विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिखी हैं बल्कि इनकी लिखी स्कूली किताबों को पढ़कर पीढ़ियों ने अपना इतिहास बोध और भारत बोध बनाया और विकसित किया है। इन इतिहासकारों की शिष्यों की भी पीढ़ियाँ हैं जो पूरे भारत के अलग अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ा रही हैं, और लिख भी रही हैं।
 
 
जेएनयू की अहमियत
हिंदी में हर किसी का सपना नामवर सिंह बनने का रहता है। कुछ नहीं तो उनसे पढ़ लेना भी बड़ी योग्यता मानी जाती रही है। यह उस हिंदी का हाल है जिसके बिना हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान बन ही नहीं सकता।
 
 
इतिहास और भाषा, आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परियोजना के लिए अहम हैं। अगर उनका प्रभुत्वशाली स्वर राष्ट्रवादी न होकर किसी प्रकार का वामपंथी हो तो फिर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपने पैर कैसे फैलाए?
 
 
आश्चर्य नहीं कि पिछले कई दशकों से रोमिला थापर को आरएसएस ने अपना प्रमुख बौद्धिक शत्रु मानकर उनपर हमला जारी रखा है। जो सावरकरी और दीनदयाली भारतीयता से ग्रस्त हैं, वे भी दबे-छिपे मानते हैं कि है यह नारेबाजी और इसमें बौद्धिकता की वह दृढ़ता नहीं जो रोमिला में है।
 
 
बिपन ने जो राष्ट्रवादी आख्यान रच दिया है, अब तक संघ उसकी प्रभावी काट नहीं कर पाया। इनके भी अनेक शिष्य हैं जो किताबें लिखते चले जा रहे हैं और जाने कहाँ कहाँ कक्षाओं में छिपे हुए हैं। इन इतिहासकारों और अन्य विद्वानों से नाराज़गी और चिढ़ ने इनके ख़िलाफ़ संघ के मन में एक हिंसा पैदा की है। आरएसएस के "बौद्धिक" प्रभुत्व के लिए ज़रूरी है कि जेएनयू का यह बौद्धिक स्वर किसी तरह ख़ामोश किया जा सके।
 
 
संघ के एक संगठन के एक प्रवक्ता से जब मैंने कहा कि आप इनकी किताबें जलाने की जगह, इनके मुक़ाबले की किताब क्यों नहीं लिख देते, तो उनका जवाब था कि किताब लिखने में बहुत वक्त लगता है। जलाने में तो बस एक तीली भर लगानी है! जेएनयू का नौजवान, ग़लत या सही, बौद्धिक माना जाता है। जब तक वह आपको क़बूल न करे आपकी इज़्ज़त ही क्या रही!
 
 
आरएसएस का सपना इन नौजवानों की स्वीकृति पाने का रहा है। जेएनयू की उच्च बौद्धिकता उसे सतही मानती है और इसलिए विचारणीय भी नहीं मानती। यह सबसे तकलीफ़देह और अपमानजनक है। इसीलिए अगर बौद्धिक स्वीकृति न मिले तो बाहुबल या सत्ता बल से ही इस 'अंहकार' को तोड़ना होगा! वही अभियान पिछले तीन वर्षों में उग्र हो गया है।
 
 
इस साल भी छात्र संघ में प्रवेश के संघ के प्रयास को जेएनयू के छात्रों के द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद हो सकता है कि इस उग्रता में और तीव्रता आए!
 

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