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इसराइली यहूदी और फ़लस्तीनी मुसलमान, दो 'दुश्मनों' के बीच दो सप्ताह

BBC Hindi
सोमवार, 17 मई 2021 (09:29 IST)
ज़ुबैर अहमद (बीबीसी संवाददाता)
 
इसराइल और फ़लस्तीनी क्षेत्रों में इस समय जिस तरह की तबाही और हिंसा चल रही है उसे देखते हुए मुझे यरुशलम की अपनी यात्रा याद आ रही है। मैं 2019 में पहली बार इसराइल गया, यह मेरे लिए आंखें खोल देने वाला अनुभव था। मैं बहुत तरह की साज़िशों की कहानियां सुनकर बड़ा हुआ और ये सारी कहानियां यहूदी लोगों के बारे में थीं, हमें ये बताया गया था कि यहूदी लोगों के जीवन का मक़सद इस्लाम और मुसलमानों को ख़त्म करना है, उन्हें तबाह करना है।
 
मैं जिस समाज में और कुनबे में बड़ा हुआ वहां यहूदी ही दुश्मन नंबर वन थे, हमें बताया गया था कि उन पर यक़ीन नहीं किया जा सकता है, उनसे दोस्ती नहीं की जा सकती है, हमें बचपन से ही यह सब सिखाया गया था।
 
हमें ये कभी नहीं बताया गया था कि बतौर देश इसराइल और वहां रहने वाले यहूदी लोग एक ही नहीं हैं, बल्कि अलग-अलग हैं। शायद ये फर्क़ हमारे बुज़ुर्ग नहीं समझते थे। ये कुछ ऐसा ही है कि बतौर देश पाकिस्तान, और पाकिस्तान में रहने वाले लोग दोनों अलग-अलग हैं, ये हम हमेशा महसूस करते हैं।
 
यहूदी विरोधी भावना मुसलमानों के हमेशा लड़ते रहने वाले दो फिरकों (शिया-सुन्नी) को एकजुट कर देती है, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले मुसलमान यहूदियों के विरोध के नाम पर एकजुट हो जाते हैं।
 
एक मुसलमान बच्चे के तौर पर भारत में बड़े होते हुए हम फ़िलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन पीएलओ के नेता यासिर अराफ़ात की बहादुरी के क़िस्से सुनकर दंग रह जाते थे, उनके संगठन और उनके आंदोलन के नेता हमारे लिए हीरो जैसे थे।
 
फ़लस्तीनी पीड़ित हैं और इसराइल हमलावर और आततायी है, ये बात हमारे दिमाग़ में एक तरह से पूरी तरह बैठ गई थी।
 
भारत की विदेश नीति
 
इन विचारों को भारत की विदेश नीति की वजह से भी बहुत ताक़त मिली क्योंकि वो फ़लस्तीनी लोगों और उनके नेताओं के पक्ष में काफ़ी हद तक झुकी हुई थी। संयुक्त राष्ट्र में लाए जाने वाले सभी प्रस्तावों पर भारत इसराइल के ख़िलाफ़ होता था। भारत आने पर यासिर अराफ़ात का वैसा ही स्वागत होता था जैसा किसी राष्ट्राध्यक्ष का होता है।
 
ये सब कुछ अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जाकर बदला। वैसे भी दुनिया भर में फलस्तीनियों के लिए अधिक सहानुभूति साफ़ तौर पर महसूस की जा सकती थी। पश्चिमी देशों के पत्रकार भी फलस्तीनियों के इलाकों- वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी- को हमेशा इसराइल की ऑक्योपाइड टेरिटरी यानी कब्ज़े वाली ज़मीन बताते थे।
 
आगे चलकर जब मैं काम करने में और रहने के लिए यूरोप गया तो वहां पर बड़े पैमाने पर छिपी हुई यहूदी विरोधी भावनाएं थीं, जिनकी वजह से मुझे ऐसा लगता था कि ये सब लोग मेरे बचपन के विचारों से सहमत हैं।
 
तेल अवीव की यात्रा
 
दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर विमान में बैठते वक़्त मेरे मन में बहुत ही मिले-जुले ख़याल थे, उत्सुकता थी, आशंका और एक तरह की ग्लानि भी थी। मेरे कुछ साथी पत्रकारों ने मुझे बताया था कि तेल अवीव के बेन गुरियन हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन की सख़्त पूछताछ और कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के लिए मुझे दिमाग़ी तौर पर तैयार रहना चाहिए।
 
जब मैं इमिग्रेशन काउंटर पर पहुंचा तो मेरा दिल बहुत तेज़ी से धड़क रहा था, मेरे पत्रकार दोस्तों को हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय हवाई-अड्डे पर इमिग्रेशन के साथ दिक्कतों का सामना करना पड़ा हो, लेकिन मेरे लिए सब कुछ बहुत आसान रहा, मैंने बड़ी राहत महसूस की। मैं और मेरे सहकर्मी दीपक जसरोटिया आराम से एयरपोर्ट से बाहर आ गए।
 
एयरपोर्ट टर्मिनल दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई-अड्डे के मुक़ाबले काफ़ी छोटा था और मुंबई के चमक-दमक भरे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती थी।
 
हवाई अड्डे का नाम बेन गुरियन के नाम पर रखा गया है जिन्हें इसराइल का संस्थापक माना जाता है, मैंने बचपन से पढ़ रखा था कि बेन गुरियन एक अति उत्साही यहूदी थे जो पोलैंड से 1906 में फ़लस्तीनी इलाक़े में आए थे।
 
गुरियन ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह का नेतृत्व करने वालों में शामिल थे और उनके बारे में इतिहासकार मानते हैं कि उन्होंने यरुशलम के मशहूर होटल किंग डेविड पर 1946 में एक बम हमला भी किया था जिसमें 91 लोग मारे गए थे।
 
मैंने देखा कि इसराइलियों के लिए वो नायक थे और उनके देश के संस्थापक थे, 1948 में बने एक नए देश के पहले प्रधानमंत्री थे। उनका शुरुआती जीवन बहुत ही कठिन परिस्थितियों में गुज़रा था, फ़लस्तीनी क्षेत्र में आने के बाद एक मज़दूर के तौर पर बड़ी मुश्किल से दो वक़्त की रोटी जुटा पाते थे।
 
बनी-बनाई छवि से अलग
 
अपने दो हफ़्ते के लिए इसराइल प्रवास के दौरान मैंने पाया कि उनकी जीवनी में सच्चाई के अलावा और काफ़ी कहानियां भी शामिल हैं। मिसाल के तौर पर उनके बारे में जो बातें कही जाती हैं उनमें से कुछ को इसराइल में बिलकुल अकाट्य सत्य माना जाता है। उसमें से एक ये भी है कि उन्होंने अरब मज़दूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया था।
 
पूरा इसराइली समाज इस बात को नकारता है कि होटल किंग डेविड के बम कांड में उनकी कोई भूमिका थी और लोग ये कहते हैं कि उस समय वो पेरिस में थे, ये बात सच है कि वो उस समय पेरिस में थे लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि पेरिस जाने से पहले उन्होंने इस बम कांड को अपनी मंज़ूरी दी थी।
 
इसराइल से जो एक बात मैं अच्छी तरह समझकर लौटा जो अब भी मेरे दिमाग़ में है कि अधिकतर इसराइली फलस्तीनियों से नफ़रत नहीं करते थे। भारत में सोशल मीडिया पर कुछ लोग जल रहे ग़ज़ा की तस्वीरों को देखकर बहुत उत्साहित हो रहे हैं, लेकिन सच बात ये है कि इसराइल की यहूदी बिरादरी के कट्टरपंथी लोग भी इस तरह की हिंसा को लेकर ऐसा उत्साह नहीं दिखाते जैसा कि भारत में देखने को मिल रहा है।
 
इसराइल के अधिकतर लोग दो राष्ट्र के सिद्धांत को मानते हैं जिसके तहत इसराइल और फिलीस्तीन दो राष्ट्रों के तौर पर अगल-बगल रह सकते हैं, वे मानते हैं कि इस नीति को लागू करने की ज़रूरत है।
 
यह भी मानना ठीक नहीं होगा कि इसराइल के सभी लोग प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की ग़ज़ा के नागरिक इलाकों पर अंधाधुंध बमबारी के समर्थक हैं। इसराइल में बहुत सारे लोग हैं जो इसराइली सरकार की हिंसक आक्रामकता का विरोध करते हैं, बहुत सारे ऐसे यहूदी इसराइली हैं जो फलस्तीनियों के मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
 
मिल-जुलकर रहने की कोशिश
 
वहां एक अभियान चल रहा है जिसमें इसराइली यहूदी और मुसलमान फ़लस्तीनी, दोनों शामिल हैं। इस अभियान का उद्देश्य शांति स्थापित करना है, वे लगातार सत्ता में बैठे लोगों की ग़लत नीतियों पर सवाल उठाते रहते हैं।
 
वहां शांति और सह-अस्तित्व चाहने वाले लोग दोनों तरफ़ हैं और उन्होंने इसकी एक मिसाल भी पेश की है, एक इलाक़े में एक साथ रहने का फ़ैसला किया है। साल 1974 में उन्होंने एक गांव की स्थापना की और उसे एक नाम दिया- 'नौवे शालोम-वहात-अल-सलाम'। ये एक हिब्रू-अरबी नाम है जिसमें दोनों ही का मतलब है--शांति का नखलिस्तान।
 
मैं दो बार गांव में ये देखने गया कि लंबे समय से एक दूसरे के कट्टर शत्रु समझे जाने वाले दो समुदायों के लोग एक ही गांव में मिल-जुलकर कैसे रह रहे हैं।
 
हमने उनसे कम्युनिटी सेंटर में मुलाक़ात की, दोनों समुदायों के लोगों से गांवों के थियेटर के बाहर लंबी बातचीत की और हमने अपना ज़्यादातर समय एक स्कूल में बिताया जहां यहूदी और मुसलमान बच्चे एक साथ पढ़ते हैं।
 
पहली नज़र में ये समझना मुश्किल था कि इन बच्चों में यहूदी कौन है और मुसलमान कौन, दोनों एक जैसे दिख रहे थे, एक फ़लस्तीनी महिला ने मुझे बताया कि बच्चे धीरे-धीरे इस संघर्ष के बारे में जानते हैं, दोनों समुदायों के बीच की शत्रुता के बारे में जानते हैं, और उनकी कोशिश होती है कि दुनिया में शांति और सह-अस्तित्व को संभव बनाया जा सके।
 
वहां ऐसा महसूस हुआ कि सारे अभियान को महिलाएं ही चल आ रहीं हैं। स्कूल की प्रिंसिपल एक यहूदी महिला थीं जिन्होंने अपने अभियान के बारे में बताया, उन्होंने ये भी बताया कि उनका अभियान अब कुछ इसराइली विश्वविद्यालय परिसरों में भी फैल रहा है और कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस प्रयोग को एक विषय के तौर पर पढ़ाया जा रहा है।
 
बच्चे संगीत की कक्षा में शांति के गीत गाते हैं और मैदान में मिल-जुलकर फ़ुटबॉल खेलते हैं। वो मुझे बहुत ही खुश बच्चे लगे और उनके मन में धार्मिक और राजनीतिक कड़वाहट नहीं थी।
 
सराहनीय मगर सीमित
 
शांति के ऐसे प्रयास सराहनीय हैं लेकिन वे मध्य वर्ग तक और ख़ास तौर पर उनके भीतर भी दोनों समुदायों के उदारवादी लोगों तक सीमित थे। उदारवादी यहूदी अपनी अच्छी नीयत के बावजूद अपने मुसलमान पड़ोसियों को लेकर थोड़ा सशंकित रहते हैं। शांति और सह-अस्तित्व की बात करते तो हैं लेकिन सह-अस्तित्व वाले जीवन के लिए पूरी तरह तैयार नहीं दिखते हैं।
 
गांव के थियेटर में एक युवा मुसलमान महिला एक डॉक्यूमेंट्री दिखा रही थीं जो उनके परिवार के अनुभवों पर आधारित थी। ये उनकी कहानी थी जब वो लोग एक समृद्ध यहूदी उपनगर में रहने के लिए गए थे। इस डॉक्यूमेंट्री में ये दिखाया गया है कि उनके अभिभावक गांव की पुश्तैनी ज़मीन और मकान बेचकर एक उदारवादी यहूदी इलाक़े में किराये पर रहने के लिए जाते हैं।
 
उस वक़्त तक सब कुछ ठीक रहता है जब तक उनकी मां को कैंसर नहीं हो जाता, जब वहां के लोगों को पता चलता है कि उनकी मौत होने वाली है तो वो परिवार से कहना शुरू करते हैं कि उन्हें उनके पुश्तैनी गांव में ही दफ़न किया जाना चाहिए। यह बात वहां के लोगों को मंज़ूर नहीं थी कि एक फ़लस्तीनी मुसलमान महिला का शव गांव के परंपरागत यहूदी क़ब्रिस्तान में दफ़न किया जाए।
 
डॉक्यूमेंट्री के ख़त्म होने के बाद मैंने उस युवा महिला से पूछा कि क्या आप निराश और कटु अनुभव कर रही हैं तो उनका कहना था कि वो निराश ज़रूर हैं लेकिन उनका हौसला अभी टूटा नहीं है और इस दिशा में काम जारी है।
 
पुराने ऐतिहासिक फ़सीलों वाले पूर्वी यरुशलम शहर में दोनों समुदायों के लोग बिलकुल साथ-साथ रहते हैं। इसराइल पहुंचने के दूसरे दिन हम पुराने यरुशलम की एक तंग गली से एक फ़ेसबुक लाइव कर रहे थे, ये जगह हुए 'वेलिंग वॉल' से बहुत दूर नहीं है। इस जगह को यहूदी और मुसलमान दोनों ही बहुत पवित्र मानते हैं।
 
यहीं पर अल अक्सा मस्जिद भी है जहां से ताज़ा हिंसा की शुरुआत हुई जब इसराइली सैनिकों ने इस जगह पर धावा बोलकर प्रदर्शन कर रहे मुसलमानों को हटाने की कोशिश की।
 
हमने देखा कि दुनिया भर से आए सैकड़ों यहूदी दीवार के पास जाकर उसे चूम रहे थे और प्रार्थनाएं कर रहे थे, उस दीवार के पीछे शानदार अल अक्सा मस्जिद है, जहां दुनिया भर से आए मुसलमान अपने स्थानीय साथियों के साथ नमाज़ पढ़ते हैं।
 
यहां आस्थाएं बोलती हैं, पूरी तरह से वे एक ही हैं, और उतनी ही अलग-अलग भी हैं।
 
आप ग़ौर से देखें तो आपको साफ़ दिखेगा कि मुसलमान अरबों और इसराइल यहूदियों के बीच एक प्राचीन दीवार है जो उन्हें बांटती है जहां तक इस जगह पर दावे का सवाल है इस मामले में दोनों समुदाय पूरी तरह से तरह से इसे अपना मानते हैं। वहां मुझे महसूस हुआ कि ये जगह बहुत कुछ भारत के धार्मिक स्थानों--अयोध्या, बनारस और मथुरा जैसा है जहां लंबे ऐतिहासिक विवाद हैं।
 
यरुशलम का जीवन
 
फ़ेसबुक लाइव के दौरान हम एक कैफे के अंदर गए जहां कुछ नौजवान बैठकर गप्पे लड़ा रहे थे और कहवा पी रहे थे। वे थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी बोल रहे थे, बातचीत के दौरान मुझे ये एहसास हुआ कि वो असल में अरब मुसलमान और यहूदी इसराइली थे।
 
मैंने उनसे कहा कि मुझे यह देखकर थोड़ी हैरत हुई कि यहूदी और मुसलमान इस तरह साथ-साथ बैठे गपशप कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वो मेरी हैरत को देखकर हैरत में हैं। उनमें से एक ने कहा कि हम यहां मिलजुल कर रहते हैं, दरअसल हम एक ही हैं। दूसरे ने कहा कि ये तो मीडिया है जिसने मुसलमानों और यहूदियों के बीच नफ़रत को इतना बड़ा बना दिया है।
 
यरुशलम एक बहुत ही ख़ास शहर है, बहुत सारे लोगों का सपना है एक बार येरुशलम को देखना। वो शहर जहां यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों हैं, एक ऐसा शहर जिसमें ईसाई पादरी, मुसलमान फकीर और लंबे बालों वाले यहूदी रबाई एक साथ नज़र आते हैं, ये वो शहर है जहां ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था, शहर पुराने चर्चों, मठों और प्राचीन सेनागॉग से भरा हुआ है।
 
ये वो शहर है जिसे 1099 में धर्म युद्ध के पहले हमले में ईसाई हमलावरों ने तबाह कर दिया गया, उसके एक सदी बाद सुल्तान सलाहुद्दीन अयूबी ने इस पर क़ब्ज़ा किया और 1967 में यह इसराइल के अधीन आया। ये वो जगह है जहां पंजाब के सूफ़ी संत बाबा फ़रीद एक गुफा में रहे, हमने वो गुफा देखी जिसमें बाबा फ़रीद रहते थे, ये गुफा आज भी अच्छी तरह संरक्षित है।
 
यरुशलम वैसा ही दिखता है जैसा कई फ़िल्मों में पुराने शहरों के सेट दिखाई देते हैं ऐसा इसलिए है क्योंकि शायद सेट बनाने वालों ने पुराने शहर की प्रेरणा यरुशलम से ही ली होगी, यह दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है।
 
यहां की गलियां बिल्कुल सांप की तरह लंबी और पतली हैं जिन पर छोटी-छोटी दुकानें हैं जो एक-दूसरे से बिलकुल लगी हुई हैं।
 
इसराइल की लगभग पूरी आबादी अमेरिका, रूस और बाक़ी यूरोप से आए हुए यहूदियों की है। ये लोग धीरे-धीरे करके कई दशकों में और हाल के बरसों तक इसराइल में आकर बसते रहे हैं।
 
अगर धर्म लोगों को जोड़ता है तो अलग भी करता है, ये देश मिली-जुली संस्कृतियों और समुदायों का है, जिसमें सारी दुनिया से आकर लोग बसे हैं, एक ही बात उन्हें जोड़ती है वो है यहूदी धर्म में उनका विश्वास और यह विश्वास कि यहूदियों के बिछड़े हुए क़बीले इस जगह पर आकर इकट्ठा होंगे, यही उनकी आस्था का 'प्रॉमिस्ड लैंड ऑफ़ इसराइल' है।
 
लेकिन धर्म के अलावा और भी बहुत सारे विभाजन हैं, मिसाल के तौर पर यूरोप से आए हुए गोरे यहूदी, स्थानीय अरब यहूदियों के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर हालत में हैं लेकिन गोरे यहूदियों के बीच भी रूसी, यूरोपीय और अमेरिकी होने का विभाजन है। वे कई भाषाएं बोलते हैं, वर्गों में बंटे समाज में सबसे नीचे अफ़्रीकी देश इथियोपिया से आए हुए हैं यहूदी हैं जो काले हैं और भारतीय मूल के यहूदी हैं।
 
इन तरह-तरह के यहूदियों के बीच रहते हैं स्थानीय फ़लस्तीनी अरब मुसलमान जो कि इसराइल की आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं। ये वो लोग हैं जो 1948 में देश के रूप में इसराइल के उदय के बाद भी यहां से जाने को तैयार नहीं हुए और यहीं बसे हैं।
 
इनमें से बहुत सारे लोग सदियों से यहां रह रहे हैं और वे बिलकुल अरब यहूदियों की तरह ही हैं, वे उन्हीं की तरह दिखते हैं उन्हीं की तरह का खाना खाते हैं और उन्हीं की तरह अरबी और हिब्रू बोलते हैं।
 
पूरे इसराइल में जगहों के नाम और रास्तों के साइन पोस्ट दो भाषाओं में लिखे हैं, अरबी और हिब्रू में। मैं बहुत सारे ऐसे इसराइली अरबों से मिला जो बहुत ही धाराप्रवाह अरबी बोलते हैं, वहां रहने वाले फ़लीस्तीनी यहूदियों पर बहुत सारे इल्ज़ाम लगाते हैं जिसमें सरकार की तरफ़ से किया जाने वाले भेदभाव सबसे अहम है।
 
इसराइल का मीडिया काफ़ी स्वतंत्र है और मैंने देखा की कई अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार फलस्तीनियों का पक्ष भी सामने रख रहे थे।
 
अधूरी-सी यात्रा
 
फ़लस्तीनी क्षेत्रों में गए बिना यात्रा एक तरह से अधूरी ही है। ये क्षेत्र हैं पश्चिमी तट और ग़ज़ा, मैंने जो कुछ भी देखा वो इस बात पर आधारित है कि मेरी सारी बातचीत और मुलाक़ातें इसराइल के अरब मुसलमानों और यहूदियों से हुई, हालांकि सभी फ़लस्तीनी मुसलमान नहीं हैं। उनके बीच एक छोटी-सी आबादी ईसाई फलस्तीनियों की भी है, ये ईसाई फ़लस्तीनी भी अपने क्षेत्र के लोगों के मुद्दों को लेकर उतने ही प्रतिबद्ध हैं जितने मुसलमान।
 
मेरे इसराइली दोस्त जो हमें अपनी कार में यरुशलम में घुमा रहे थे उन्होंने हमें पश्चिमी तट और ग़ज़ा ले जाने से विनम्रता से मना कर दिया उन्होंने कहा कि ये बहुत ख़तरनाक है, ख़ास तौर पर एक यहूदी होने के नाते उन दो इलाकों में उनका जाना।
 
इसराइल दोनों तरफ़ से घिरा हुआ है, उसके जॉर्डन वाले सिरे पर पश्चिमी तट यानी वेस्ट बैंक है और मिस्र वाले हिस्से में ग़ज़ा पट्टी है। पश्चिमी तट और ग़ज़ा पट्टी को इसराइल से अलग करने के लिए एक दीवार खड़ी की गई है और यात्रियों को दूसरी तरफ़ जाने के लिए विशेष अनुमति लेनी होती है।
 
पश्चिमी तट शहर येरुशलम से महज़ आधे घंटे की दूरी पर है, पश्चिमी तट वो जगह है जहां फ़लस्तीनी प्रशासन का मुख्यालय है।
 
गज़ा पट्टी पर हमास की राजनैतिक शाखा का नियंत्रण है, बहुत सारे यहूदियों ने इसराइल और पश्चिमी तट के बीच की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया है जो असल में फ़लस्तीनियों की मिल्कीयत है लेकिन यहां आकर बसे यहूदी अब इन ज़मीनों पर अपना दावा जता रहे हैं।
 
इसराइल पश्चिमी तट और ग़ज़ा पट्टी दोनों के मुक़ाबले बहुत अधिक समृद्ध दिखाई देता है पश्चिमी तट की हालत फिर भी अपेक्षाकृत ग़ज़ा पट्टी से बेहतर है। सबसे बुरी हालत में ग़ज़ा पट्टी है, ग़ज़ा पट्टी ही इसराइल विरोधी गतिविधियों का केंद्र है।
 
ये तक़रीबन 25 किलोमीटर लंबी एक संकरी-सी पट्टी है जिस पर फ़लस्तीनी अरब मुसलमानों की आबादी तंग बस्तियों में रहती है। ग़ज़ा पट्टी को एक खुली जेल भी कहा जाता है क्योंकि यहां से कोई भी व्यक्ति इसराइली अनुमति के बग़ैर बाहर नहीं निकल सकता है। ग़ज़ा पट्टी ही वो जगह है जहां हथियारबंद हमास सक्रिय है और जहां से इसराइल के इलाकों पर रॉकेट हमले किए जाते रहे हैं।
 
हम इसराइल के जिस होटल में ठहरे थे उसके मालिक एक यहूदी थे लेकिन वहां काम करने वाले लगभग सारे लोग फ़लस्तीनी अरब थे, उन लोगों ने पहले तो कहा था कि हमें ग़ज़ा पट्टी या पश्चिमी तट ले जा सकते हैं लेकिन बाद में उनका कहना था कि विदेशी पत्रकार के लिए उस तरफ़ जाना काफ़ी ख़तरनाक होगा।
 
हमने पश्चिमी तट और ग़ज़ा पट्टी जाने की बहुत कोशिश की लेकिन के बाद हमें समझ में आया कि इसके लिए बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और हम आज़ादी से उन इलाकों में न तो घूम पाएंगे, न काम कर पाएंगे।
 
इसराइल की दो हफ़्ते की इस अधूरी-सी यात्रा के बाद मैं वापस दिल्ली लौट आया और मेरे दिमाग़ में जो बहुत सारी साज़िश की कहानियां बचपन से बैठी हुई थीं वो ध्वस्त हो चुकी थीं।
 
इसराइल यात्रा के दौरान हमारी मदद करने वाले यहूदी दोस्त बाद में भारत आए, मैं पहली बार किसी यहूदी मेहमान का मेज़बान था, जब मैं बड़ा हो रहा था उस वक़्त ऐसी कोई कल्पना करना भी मेरे लिए नामुमकिन होता।

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