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इसराइल-फ़लस्तीनी संघर्ष: इन अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों से थम सकती है जंग?

इसराइल-फ़लस्तीनी संघर्ष: इन अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों से थम सकती है जंग?

BBC Hindi

, बुधवार, 19 मई 2021 (10:41 IST)
गुग्लीलेमो वर्दिरामे (किंग्स कॉलेज, लंदन)
 
अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ज़रिए दुनिया के देशों की फ़ौज़ी ताक़त पर निगरानी रखी जाती है और इसी बीच हमास और इसराइल के बीच जारी लड़ाई पर इसे लेकर बहस जारी है। ग़ज़ा में पुरानी कार्रवाइयों की तरह इस बार भी ऐसा संभावना है कि इसराइल हमेशा की तरह कहेगा कि वह आत्मरक्षा के लिए ऐसा कर रहा है और जो वैध है।
 
संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का अनुच्छेद 51 कहता है कि आत्मरक्षा का अधिकार अंतरराष्ट्रीय क़ानून का मूलभूत सिद्धांत है। हालांकि, इस सिद्धांत के कई पक्षों पर विवाद है।
 
इस पर सार्वभौमिक रूप से सहमति है कि कोई राष्ट्र हथियारबंद हमले के ख़िलाफ़ अपनी रक्षा कर सकता है।
 
वहीं, कुछ बहस इस बात को लेकर भी है कि कितनी तीव्रता के हथियारबंद हमले को एक राष्ट्र ख़ुद के आत्मरक्षा के रूप में क़ानूनी रूप से परिभाषित कर सकता है।
 
अनुच्छेद 51 के तहत कई अंतरराष्ट्रीय वकील इस बात को लेकर सहमत हैं कि नागरिकों के ख़िलाफ़ किसी उद्देश्य से किया गया रॉकेट हमला जो देश में सामाजिक जीवन को प्रभावित करे, उसे हथियारबंद हमला माना जाता है।
 
आत्मरक्षा क्या है?
 
हालांकि, अक्सर आत्मरक्षा के तहत आने वाले तथ्यों पर विवाद रहा है। हिंसा के बीच शायद ही कभी कोई पक्ष इस बात पर सहमत होता है कि कौन हमलावर है या कौन बचाने वाला है और इसमें इसराइली-फ़लस्तीनी संघर्ष भी कोई अपवाद नहीं है।
 
इस मामले में इसराइल की स्थिति के आलोचक भी उसके पक्ष में दो क़ानूनी तर्क देते हैं।
 
पहला तर्क यह है कि आत्मरक्षा का अधिकार केवल एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र के बीच संघर्ष में लागू होता है, जबकि ग़ज़ा कोई राष्ट्र नहीं है।
 
11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद राष्ट्रों के काम करने के तरीक़े आत्मरक्षा की व्याख्या से कहीं अलग नज़र आते हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने इस सवाल का जवाब आज तक तय नहीं किया है।
 
दूसरा तर्क यह है कि रेडक्रॉस की अंतरराष्ट्रीय समिति और अन्य यह मानते हैं कि ग़ज़ा आज भी इसराइली क़ब्ज़े का विषय है, क्योंकि इसराइल उस क्षेत्र के चारों ओर का नियंत्रण अपने पास रखता है।
 
हालांकि, इसराइल का कहना है कि 2005 में उसके निकलने के बाद ग़ज़ा पर उसका क़ब्ज़ा नहीं है और इस क्षेत्र को बिना 'ज़मीन पर सेना' को उतारे क़ब्ज़ा नहीं किया जा सकता है।
 
आत्मरक्षा का अधिकार कोई ब्लैंक चेक नहीं है। अंतरराष्ट्रीय क़ानून सही परिप्रेक्ष्य में अपनी आत्मरक्षा का अधिकार देता है लेकिन सिर्फ़ उतने सैन्य बल के इस्तेमाल में जो ज़रूरी और समानुपाती हो।
 
आत्मरक्षा के समानुपाती होने का आम मतलब यह नहीं है कि आप भी आंख के बदले आंख चाहें, रॉकेट के बदले रॉकेट या फिर जान के बदले जान। यह ऐसा नहीं है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय क़ानून में बदले के लिए कोई जगह नहीं है।
 
कुछ मामलों में यह आवश्यक और समानुपाती है कि सैन्य बलों के एक बड़े लश्कर को शामिल किया जाए। वहीं दूसरे मामलों में यह भी संभव है कि एक देश कम सैन्य बल का इस्तेमाल करके अपना सही तरीक़े से बचाव कर ले जाए।
 
सशस्त्र संघर्ष के लिए क़ानून
 
आत्मरक्षा के अधिकार का सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय क़ानून से संबंधित है, जो बल के प्रयोग या 'युद्ध में जाने' को नियमबद्ध करता है।
 
अंतरराष्ट्रीय क़ानून की एक दूसरी श्रेणी संघर्ष शुरू होने के बाद युद्ध की स्थिति को भी नियमबद्ध करती है। यह सशस्त्र संघर्ष के क़ानून के रूप में जाना जाता है।
 
यह क़ानून केवल सशस्त्र संघर्ष के दायरे के तहत आता है और इसके नियम अंतरराष्ट्रीय या ग़ैर-अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र संघर्ष से अलग होते हैं।
 
सशस्त्र संघर्ष का क़ानून बिना किसी कारण के परवाह किए बग़ैर यह देखता है कि किस पक्ष ने ताक़त का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया।
 
क़ानून के 'सही' होने के आधार पर ही किसी राष्ट्र को अपने दुश्मन के ख़िलाफ़ अधिक हमलों का अधिकार नहीं मिल जाता है। ऐसी संभावना रहती है कि कोई राष्ट्र क़ानून का सहारा लेकर लड़ाई शुरू करे और फिर सशस्त्र संघर्ष में ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाइयां करे या फिर इसका उल्टा भी हो सकता है।
 
सशस्त्र संघर्ष के क़ानून में विभिन्न पक्षों के लिए कई नियम हैं जिसमें युद्ध के दौरान नागरिकों की सुरक्षा, युद्ध अपराधियों के साथ व्यवहार और क्षेत्रों पर क़ब्ज़े जैसे मुद्दे शामिल हैं।
 
ये सभी नियम चार मूलभूत सिद्धांतों पर लागू होते हैं, मानवता और सैन्य आवश्यकता, अंतर और संतुलन।
 
मानवता और सैन्य आवश्यकता
 
मानवता के सिद्धांत के तहत किसी जगह पर अतिरिक्त पीड़ा देने और क्रूरता की मनाही है और इसका जवाब है कि वहां पर कितनी सैन्य आवश्यकताएं हैं।
 
ब्रिटिश सैन्य बलों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाली क़ानूनी नियमावली कहती है कि सैन्य आवश्यकता एक राज्य को बल प्रयोग करने की अनुमति तभी देती है जबकि इसकी बहुत ज़रूरत न आन पड़े। इसके इस्तेमाल भी केवल 'संघर्ष में वैध उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हो सकता है और साथ ही कम से कम जान और माल की हानि के बिना।'
 
एक तर्क यह भी है कि ग़ज़ा में इसराइली बमबारी बेअसर है क्योंकि वे हमेशा रॉकेट हमलों को रोकने में नाकाम रहते हैं, एक तरीक़े से इस परिप्रेक्ष्य में यह ताक़त के इस्तेमाल का निरर्थक साबित होना है लेकिन सैन्य ज़रूरत की ओर से देखें, तो यह सही तर्क हो सकता है कि हमलों को नाकाम करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा ताक़त का इस्तेमाल किया जाए।
 
वास्तव में यह सच है कि अगर कोई क़ानून अगर किसी ख़ास काम की अनुमति देता है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह राजनीतिक, नैतिक या रणनीतिक रूप से भी सही हो।
 
किसी भी सूरत में सैन्य आवश्यकताएं उन कामों को सही नहीं ठहरा सकती हैं, जो विशिष्ट सिद्धांतों के तहत प्रतिबंधित हैं या उनका आमतौर पर नतीजा 'पीड़ा या बदला हो।'
 
अंतर और संतुलन
 
सशस्त्र संघर्ष के नियमों के अंतर का मूल सिद्धांत यह होता है कि संघर्ष में शामिल पक्ष लड़ाकों और आम लोगों में अंतर करें।
 
इस सिद्धांत के तहत बहुत से नियम होते हैं। आम लोगों और उनके चीज़ों को निशाना बनाना हमेशा प्रतिबंधित होता है। युद्ध में शामिल लड़ाकों, ग़ैर-लड़ाकों और सैन्य चीज़ों के ख़िलाफ़ हमले किए जा सकते हैं।
 
इसके साथ-साथ इस सिद्धांत के तहत आम लोगों के बीच हिंसा का काम करना और डर फैलाना भी प्रतिबंधित होता है। उदाहरण के तौर पर दक्षिणी इसराइल के ख़िलाफ़ मिसाइल हमला करना इस सिद्धांत को तोड़ता है।
 
लेकिन कब किसी चीज़ को सैन्य साज़ो-सामान के तौर पर लक्ष्य बनाया जा सकता है?
 
सैन्य सामान कैसे बनती है कोई चीज़
 
अंतरराष्ट्रीय क़ानून सैन्य साज़ो-सामान को परिभाषित करता है। इसके तहत वो चीज़ आती है 'जो सैन्य कार्रवाई में प्रभावी योगदान देती हो। और जिसका आंशिक या पूरी तरह नष्ट होना एक निश्चित सैन्य लाभ प्रदान करता हो।'
 
इसराइली डिफ़ेंस फ़ोर्स (IDF) के टैंक या हमास के रॉकेट इसी श्रेणी में आते हैं लेकिन समस्या तब उत्पन्न हो जाती है जब तथाकथित दो लोगों के इस्तेमाल करने वाली चीज़ों को लक्ष्य बनाया जाता है। जैसा कि 1999 के कोसोवो युद्ध में हुआ था जब नेटो ने सर्बियन टीवी स्टेशन को उड़ा दिया था।
 
लेकिन सबसे अधिक मुश्किल तब आती है, जब कोई सैन्य चीज़ जैसे रॉकेट लॉन्चर या हथियारों का डिपो आम लोगों के बीच में या आम लोगों की चीज़ों के बीच में हो। वास्तव में ग़ज़ा जैसे भीड़भाड़ वाले इलाक़े में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
 
इसी जगह पर आनुपातिक या समानता का सिद्धांत लागू होता है। जिस तरह से समानता का सिद्धांत मानवाधिकार समेत क़ानून के कई क्षेत्रों में है, उसी तरह से सैन्य संघर्ष के क़ानून में भी इसका एक विशेष अर्थ है।
 
जब भी युद्ध में आम लोगों की जान या माल की हानि का डर होता है तब हमला करने वाले राष्ट्र की सेना पर यह वाजिब है कि वह आम लोगों की जान-माल की हानि के ख़तरे को देखते हुए प्रत्याशित सैन्य लाभ में संतुलन लाए।
 
हमला करने वाले को जब यह पता चले कि इससे किसी आम नागरिक को नुक़सान हो सकता है तो वो तुरंत हमले को रोक दें।
 
कोई भी हमलावर अगर किसी सैन्य चीज़ को भीड़भाड़ वाले इलाक़े में निशाना बना रहा है तो उसको अपने लक्ष्य के बारे में सबकुछ पता होना चाहिए और हर ग़लती से बचना चाहिए।
 
पर्चों को फेंकना या बमबारी से पहले लोगों को सूचित करने जैसे इसराइल के दावे उसके इस नियम को मानने के एक सबूत हैं। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि यह तरीक़े अक्सर लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए काफ़ी नहीं होते हैं जबकि वे आम लोगों की संपत्ति को नुक़सान होने से नहीं बचा पा रहे हैं।
 
इसके उलट हमास पर हमेशा यह आरोप लगते रहते हैं कि वह अपने सैन्य साज़ो सामान को लोगों के बीच लाकर उनकी ज़िंदगी ख़तरे में डालता है।
 
अगर यह सच है तो सशस्त्र संघर्ष के नियमों का यह एक गंभीर उल्लंघन है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसराइल को आम लोगों के जान-माल का नुक़सान करने की छूट मिल जाती है।
 
इसराइली डिफ़ेंस फ़ोर्सेज़ समेत सभी आधुनिक सैन्य बलों में सशस्त्र संघर्षों के क़ानून के विशेषज्ञ होते हैं जो इस तरह के लक्ष्यों को निशाना बनाने की अनुमति देने में शामिल होते हैं।
 
हालांकि, अगर कोई जानबूझकर आम लोगों या उनकी चीज़ों को निशाना बनाता है तो सशस्त्र संघर्ष के क़ानूनों के तहत उस कार्रवाई को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है।
 
मानवाधिकार
 
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय कई बार कह चुका है कि युद्ध के समय में मानवाधिकार समाप्त नहीं हो सकते हैं। हालांकि, उस समय सशस्त्र संघर्ष के क़ानून के तहत ही उस क्षेत्र का शासन चल रहा होता है जो युद्ध की चुनौतियों का सामना करने के लिए बनाए गए हैं।
 
इसराइल के अंदर अरब गांवों में जब झड़पें होती हैं तब वहां सशस्त्र संघर्ष के क़ानून लागू नहीं होते हैं। वहां पर इसराइली क़ानूनी एजेंसियां और सुरक्षा बल केवल मानवाधिकार क़ानूनों के तहत ही अंतरराष्ट्रीय क़ानून के दायरे में आते हैं।
 
पूर्वी यरूशलम की स्थिति तो और भी जटिल है क्योंकि इसराइल उसे अपना मानता है और वहीं दूसरी ओर इसे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय और कई पक्षों की ओर से आज भी फ़लस्तीनी क्षेत्र माना जाता है।
 
आख़िर में यह याद रखना ज़रूरी है कि सशस्त्र संघर्ष का क़ानून केवल युद्ध की भयावहता को कम कर सकता है। एक ऐसी जंग जो किताब में मौजूद सभी क़ानूनों को नज़रअंदाज़ करके लड़ी गई हो, वो सिर्फ़ एक आतंक ही हो सकती है। (फोटो सौजन्य : बीबीसी/रायटर)

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