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भारत में सुरक्षित जगहों पर भी क्यों ख़तरे में हैं बच्चे?

भारत में सुरक्षित जगहों पर भी क्यों ख़तरे में हैं बच्चे?
, शुक्रवार, 15 सितम्बर 2017 (11:51 IST)
- रिद्धिमा मल्होत्रा
बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित जगहें भी अब सुरक्षित नहीं रहीं। पिछले दिनों से छोटे-छोटे बच्चों का उनके घर और स्कूल में ही यौन शोषण होने की खबरें आ रही हैं। गुरुग्राम के एक स्कूल में सात साल के बच्चे की यौन शोषण की कोशिश के बाद जघन्य हत्या और दिल्ली के एक निजी स्कूल में 5 साल की बच्ची से चपरासी की ओर से रेप की घटनाओं ने पहले से ही चिंतित माता-पिताओं के सब्र का कड़ा इम्तिहान लिया है। अब वे स्कूलों में अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर और परेशान हो उठे हैं।
 
रिश्तेदारों की ओर से बलात्कार के बाद 10 और 13 साल की बच्चियों के गर्भवती होने की खबरों ने भी इस बात को लेकर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है कि बच्चे अपने घर की दीवारों के अंदर कितने सुरक्षित हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, साल 2015 में बच्चों के खिलाफ़ हुए अपराधों में दर्ज 91,172 मामलों में से 42,520 यानी करीब 45.50 फ़ीसदी उनके यौन शोषण से जुड़े हुए थे।
 
बाल अधिकार समूहों द्वारा जुटाया गया डेटा बताता है कि बच्चों के रेप के मामलों में कम से कम 94 फीसदी मामले ऐसे हैं, जिनमें अपराधी उन बच्चों के जान-पहचान वाले ही थे। 35 फ़ीसदी अपराधी उनके पड़ोसी थे और 10 फ़ीसदी तो उनके परिवार के सदस्य और रिश्तेदार ही थे।
 
भारत में बच्चे सुरक्षित नहीं
महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा 2007 में करवाए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारत में बाल यौन शोषण की दर 53 प्रतिशत है, जो कि 19.7 प्रतिशत मेल और 7.9 प्रतिशत फीमेल की वैश्विक दर से कहीं ज़्यादा है। महाद्वीपीय स्तर पर जाएं तो अफ्रीका में बाल यौन शोषण की दर 34.4 है जो सबसे ज्यादा है। इसमें भी सबसे ख़राब हालात साउथ अफ्रीका के हैं, जहां दर 60 फीसदी है।
 
भारत सरकार द्वारा करवाई गई स्टडी भी कहती है कि कम से कम बाल मज़दूरी के मामलों में लड़के और लड़कियां यौन हमलों के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित होते हैं। 2001 में बच्चों से बलात्कार के 2113 मामले दर्ज हुए थे मगर 2015 में यह आंकड़ा बढ़कर 10,854 हो गया।
 
क्यों बढ़ रहे हैं मामले?
देश में पिछले कुछ सालों में बच्चों के यौन शोषण के मामले इतनी तेज़ी से कैसे बढ़ गए? सीधा कारण यह है कि बच्चे आसान टारगेट होते हैं। उन्हें ताकत के बल पर वश में करना और मजबूर कर देना आसान होता है। एक तरफ जहां बच्चों को उनसे साथ हुई हरकत को गुप्त रखने के लिए आसानी से धमकाया जा सकता है, वहीं उनमें से कुछ तो यह समझने लायक नहीं होते कि उनके साथ क्या ग़लत हुआ है।
 
भारत में चाइल्ड पॉर्नोग्रफी बहुत सर्च की जाती है और यह ऑनलाइन उपलब्ध भी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस दिशा में सोशल मीडिया वेबसाइटों को रिपोर्ट देने के निर्देश दिए थे। इसके अलावा देश में बच्चों को ऐसे अपराधों से बचाने के लिए उपयुक्त कानूनों के तहत कार्रवाई होने का डर भी नहीं रहा है। ऐसे कानूनों को हाल ही में लाया गया है।
 
प्रॉटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेज़ (पॉक्सो) को 2012 में ही बनाया गया है। बच्चों या नाबालिगों के विभिन्न तरह से यौन शोषण के मामलों में इसी कानून के तहत कार्रवाई होती है। इस कानून से पहले देश में इस तरह के मामलों से निपटने के लिए गोवा चिल्ड्रन ऐक्ट 2003 ही एकमात्र कानून था। उसमें भी कई सारी कमियां थीं। उसमें लड़कों को ज्यादा सुरक्षा नहीं मिल पाती थी और यौन शोषण के प्रचलित तरीकों के अलावा अन्य मामलों पर विचार नहीं होता था।
 
मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं जिम्मेदार
बच्चों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। कई सारे सामाजिक-सांस्कृतिक कारण अपराधियों को प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए हमारे बीच ज्यादातर लोगों, खासकर मर्दों को रोज़ाना जिन सामाजिक चुनौतियों और आर्थिक संघर्ष से गुज़रना पड़ता है, उससे वे ज्यादा आक्रामक और कठोर हो जाते हैं।
 
एक बात और है, भारत में दो वयस्कों के बीच सहमति से होने वाले सेक्स का चलन भी आम नहीं है। कई सर्वे बता चुके हैं कि देश में ऐसे मर्द बड़ी संख्या में हैं, जिन्हें लगता है कि दूसरे शख्स से जबरन किया जाने वाला या उसे दर्द देने वाला सेक्स ज्यादा मज़ेदार होता है।
 
बाल अधिकार कार्यकर्ता और नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों के शारीरिक शोषण को देश में फैली 'मोरल एपिडेमिक' करार दिया है, जो कि सही है। पूरी दुनिया की आबादी के 19 फ़ीसदी बच्चे भारत में रहते हैं। हमारी देश में 40 फ़ीसदी लोग नाबालिग हैं। मगर ज्यादातर बच्चों के साथ उस संवेदनशीलता के साथ बर्ताव नहीं किया जाता, जिसके वे हकदार होते हैं।
 
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पूरी दुनिया में गरीबी में जीवन बिता रहे बच्चों में से 30 फ़ीसदी भारत में ही रहते हैं। ऐसे ज्यादातर बच्चे या तो बेघर हैं या फिर जीवन-यापन में लगे माता-पिता उनपर ध्यान नहीं देते। इन वजहों से ये बच्चे कई तरह के खतरों के लिए असुरक्षित हो जाते हैं।
 
सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने, स्कूलों मे बच्चों और स्टाफ के लिए कानूनी सलाह-मशविरा जरूरी करने जैसे कदम उठाने से इस तरह के अपराधों में देर से ही सही, लगाम लगाने में मदद मिलेगी। इससे भी ज्यादा प्रयास सरकार और सभ्य समाज को करने होंगे, ताकि देश में सभी बच्चों की समानता और सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।

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