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कोरोना वायरस : आपके काम और जेब पर कितना पड़ सकता है असर?

कोरोना वायरस : आपके काम और जेब पर कितना पड़ सकता है असर?
, बुधवार, 22 अप्रैल 2020 (08:28 IST)
- निधि राय
भारत में जारी लॉकडाउन के बीच तीन बच्चों की माँ, उमेश चौधरी को परिवार की बुनियादी ज़रूरतों के लिए अतिरिक्त संघर्ष करना पड़ रहा है। 37 वर्षीय उमेश दक्षिण दिल्ली के अधचिनी इलाक़े में रहती हैं और लॉकडाउन की वजह से उनका काम पूरी तरह से बंद हो गया है जिससे उनका घर चलता था। उमेश अपने घर के आसपास के दफ़्तरों में लंच सप्लाई का काम करती हैं।

वे बताती हैं, इस काम में हमें दो पैसे बच जाते थे। दिन में क़रीब 35 ऑर्डर आ जाते थे और 60 रुपए एक टिफ़न की क़ीमत होती है। अब सारे दफ़्तर बंद हैं, कोई ऑर्डर नहीं मिल रहा। हम रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं। पैसा जोड़ नहीं पाते। अब पाँच लोगों के परिवार को संभालना कितना मुश्किल है, कैसे बताऊं।

27 वर्ष के शारदा प्रसाद की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। शारदा मूल रूप से मिर्ज़ापुर के हैं और दिल्ली में बाग़बानी या फिर छोटे मोटे काम करके घर चलाते हैं। वे कहते हैं, मेरे मालिक ने कह दिया कि काम कब शुरू होगा, वे नहीं जानते। पर मैं मुसीबत में फंस गया हूँ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा की थी जिसे 14 अप्रैल को समाप्त होना था। लेकिन महामारी की मौजूदा स्थिति को देखते हुए लॉकडाउन को 3 मई तक के लिए बढ़ा दिया गया।
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लॉकडाउन की वजह से देश में लगभग सभी व्यापारिक गतिविधियाँ रुकी हुई हैं, अधिकांश ग़ैर-सरकारी दफ़्तर बंद हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोगों का काम ठप हो चुका है।

बीते दिनों यह देखने को मिला कि सभी बड़े शहरों से हज़ारों की संख्या में अनौपचारिक ढंग से काम करने वाले श्रमिकों ने मीलों दूर स्थित अपने गाँवों को लौटने का फ़ैसला किया या कहें कि मजबूरन उन्हें यह फ़ैसला करना पड़ा।

हालांकि भारत सरकार ने अब खेती, बैंकिग सेवाओं और सार्वजनिक कार्यों के लिए आगे बढ़ने की इजाज़त दे दी है। लेकिन सार्वजनिक परिवहन जैसी महत्वपूर्ण सेवाएं बंद होने से भारत के ना सिर्फ़ ग्रामीण, बल्कि शहरी हिस्सों में भी बेरोज़गारी की स्थिति और बदतर हो सकती है।

आर्थिक मामलों पर गहन शोध करने के लिए जानी जाने वाली संस्था सीएमआइई का अनुमान है कि कोविड-19 की वजह से भारत में अब तक 10 से 12 करोड़ लोग अपनी नौकरी गंवा चुके हैं। संस्था का कहना है कि भारत में अब बेरोज़गारी की दर 26 प्रतिशत तक पहुँच गई है।

लॉकडाउन के प्रभाव
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार मार्च महीने में बेरोज़गारी की दर में 8.7 फ़ीसदी की वृद्धि देखी गई जो कि पिछले 43 महीनों में सबसे ज़्यादा है। जबकि 24 मार्च से 31 मार्च 2020 के बीच यह दर बढ़कर 23.8 फ़ीसदी तक चली गई।

भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणब सेन ने कहा है कि लगभग 50 मिलियन यानी तक़रीबन पाँच करोड़ भारतीय श्रमिकों की नौकरी अब तक जा चुकी है।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसिज़ के चेयर प्रोफ़ेसर आर रामाकुमार ने कहा, भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2018 की तुलना में पहले ही धीमी थी। असमानता की दर भी असामान्य रूप से बढ़ी हुई थी।

2011-12 और 2017-18 के नेशनल सेंपल सर्वे के अनुसार बेरोज़गारी ऐतिहासिक रूप से बढ़ी हुई थी और ग्रामीण ग़रीबों द्वारा खाद्य सामग्री पर कम ख़र्च किया जा रहा था। 2017-18 में ग़रीबी का स्तर पाँच फ़ीसद तक बढ़ गया था, और ऐसी हालत में भारत को कोरोना वायरस महामारी का सामना भी करना पड़ रहा है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति पहले ही बुरी थी, लेकिन लॉकडाउन ने इसे और बदतर कर दिया है। खाद्य सामग्री और अन्य ज़रूरी सामान की माँग में आई गिरावट यह दिखाती है कि देश के सामान्य आदमी और ग़रीब की ख़र्च करने की क्षमता कम हुई है।

भारत सरकार ने कोविड-19 महामारी से पार पाने के लिए 1।7 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की है। ये पैकेज स्वास्थ्यकर्मियों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की मदद के लिए दिया गया है जिससे कैश वितरण के साथ-साथ इन श्रमिकों के लिए भोजना की व्यवस्था भी की जानी है।

प्रधानमंत्री मोदी ने 14 अप्रैल के अपने संबोधन में फिर दोहराया था कि उद्योग करने वाले लोग अपने यहाँ काम करने वाले लोगों को नौकरियों से ना निकालें। लेकिन उद्योगपतियों और छोटे व्यापारियों की परेशानी ये है कि वे काम बंद होते हुए अपने कितने कर्मचारियों को वेतन दे सकते हैं।

एक बड़े प्रॉपर्टी डेवलपर निरंजन हीरानंदानी ने बीबीसी से बातचीत में कहा, कंस्ट्रक्शन सेक्टर क़रीब दो करोड़ लोगों को रोज़गार देता है। पर लॉकडाउन ख़त्म होते ही इन सभी लोगों को तुरंत काम मिल पाए, ऐसा होना मुश्किल है।

उन्होंने कहा, जब काम शुरू होगा तो बिल्डरों को उतने श्रमिकों की ज़रूरत नहीं होगी और वो अपने ख़र्चों में कटौती भी करेंगे जिसकी वजह से पहले की तुलना में रोज़गार कम होगा। समीर मेहता पिछले 26 वर्षों से यूरोप और अमरीका के अलग-अलग हिस्सों में कपड़ों का निर्यात कर रहे हैं। वे एस्टीम अपेयरल नाम की कंपनी के मालिक हैं और उनकी फ़ैक्ट्री में 150 वर्कर काम करते हैं।

वे कहते हैं, यूरोप और अमरीका से कोई नया ऑर्डर तो मिल नहीं रहा। और जो स्थिति है, उसे देखकर लगता नहीं कि अगले कुछ महीने तक भी हमारे पास बड़े ऑर्डर होंगे। और जितने ऑर्डर होंगे, काम के लिए लोगों की ज़रूरत भी उतनी ही होगी।

विशेषज्ञों का कहना है कि उद्योगों को संभालने के लिए और अधिक राजकोषीय समर्थन की ज़रूरत है। अर्थव्यवस्था के जानकार अरुण कुमार कहते हैं कि 1.7 लाख करोड़ का राहत पैकेज 0.8 फ़ीसदी की जीडीपी के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि 9 लाख करोड़ रुपए की आमदनी का नुक़सान हर महीने असंगठित क्षेत्र को हो रहा है। अरुण का अनुमान है कि भारत की 94 फ़ीसदी श्रमिक आबादी देश के असंगठित क्षेत्र में काम करती है।

ग़रीबी बढ़ेगी
जानकारों की मानें तो इस महामारी की वजह से देश में ग़रीबी बढ़ेगी क्योंकि भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूर यानी रोज़ कमाने-खाने की व्यवस्था और सरकारी सहायता पर आश्रित है।

इस महामारी की वजह से स्थिति ख़राब हुई है क्योंकि देश में माँग और आपूर्ति का तालमेल बिगड़ गया है। ऐसे में भारत के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाना एक बड़ी चुनौती है। छोटे और मझौले उद्योग शायद महामारी की वजह से बनी इस स्थिति को बर्दाश्त ना कर पाएं जिसकी वजह से ग़रीबी बढ़ने की संभावनाएं और प्रबल होंगी।

अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के अनुसार ये गिरावट बहुत गंभीर होने वाली है। संगठन का अनुमान है कि भारत के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले क़रीब 400 करोड़ लोग पहले की तुलना में और ग़रीब हो जाएंगे। जानकारों की मानें तो लंबे समय तक नौकरी ना मिल पाने की समस्या को वक़्त रहते नहीं सुलझाया गया तो देश में सामाजिक अशांति बढ़ेगी।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वरिष्ठ सदस्य और इकोनॉमी एंड ग्रोथ प्रोग्राम के प्रमुख मिहीर स्वरूप शर्मा ने बीबीसी से बातचीत में कहा, युवा भारतीयों के सबसे आकांक्षात्मक खंड पर महामारी की वजह से जो आर्थिक तनाव पड़ेगा वो उनमें व्यापक असंतोष को जन्म देगा। और दुर्भाग्य की बात ये है कि इससे अल्पसंख्यकों या अन्य कमज़ोर वर्गों को लक्षित हिंसा का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर अगर महामारी का सांप्रदायिकरण जारी रहता है।

स्वतंत्र लेखक और पत्रकार रजनी बख़्शी मानती हैं कि हमें इस दर्द को दूर करने के लिए बहुत जिम्मेदारी के साथ समान वितरण को प्रोत्साहित करना होगा। वे सुझाव देती हैं कि सरकार को यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि इस आर्थिक संकट का ख़ामियाज़ा सिर्फ़ ग़रीबों को ही ना उठाना पड़े, इसलिए कुछ ठोस कदम ज़रूर उठाने पड़ेंगे।

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