Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

होमी भाभा की मौत परमाणु कार्यक्रम रोकने की साजिश या हादसा थी?

homi jahangir bhabha : grand father of indian nuclear program

BBC Hindi

, रविवार, 7 मई 2023 (07:57 IST)
रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता
23 जनवरी, 1966 को होमी भाभा सारे दिन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) के अपने दफ़्तर की चौथी मंज़िल पर काम करते रहे।
 
उनके सहयोगी रहे एमजीके मेनन ने याद किया, "उस दिन भाभा ने मुझसे करीब दो घंटे तक बात की। उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास इंदिरा गांधी का फ़ोन आया था जो चार दिन पहले ही प्रधानमंत्री बनीं थीं। उन्होंने भाभा से कहा था कि मैं चाहती हूँ कि आप विज्ञान और तकनीक के हर मामले में मेरी सहायता करें। अगर उन्होंने वो ज़िम्मेदारी स्वीकार कर ली होती तो उन्हें मुंबई से दिल्ली शिफ़्ट होना पड़ता। भाभा ने मुझे बताया कि उन्होंने इंदिरा गांधी की पेशकश स्वीकार कर ली है। उन्होंने मुझसे कहा कि वियना से वापस आने के बाद मैं तुम्हें टीआईएफ़आर का निदेशक बनाने का प्रस्ताव काउंसिल के सामने रखूँगा।"
 
भाभा के भाई जमशेद, माँ मेहरबाई, जेआरडी टाटा, मित्र पिप्सी वाडिया और उनके दाँतों के डॉक्टर फ़ाली मेहता को भी इंदिरा गांधी की इस पेशकश की जानकारी थी।
 
हाल ही में प्रकाशित होमी भाभा की जीवनी 'होमी भाभा अ लाइफ़' के लेखक बख़्तियार के दादाभौय लिखते हैं, "भाभा ने मेनन को साफ़-साफ़ तो ये नहीं बताया कि इंदिरा गांधी ने उनके सामने क्या पेशकश की थी लेकिन मेनन का अंदाज़ा था कि इंदिरा ने उन्हें अपने कैबिनेट में मंत्री का पद ऑफ़र किया था।"
 
भाभा का विमान पहाड़ से टकराया
24 जनवरी, 1966 को भाभा वियना जाने के लिए एयर इंडिया की फ़्लाइट 101 पर सवार हुए थे। उस ज़माने में बंबई से वियना की सीधी फ़्लाइट नहीं हुआ करती थी और लोगों को जिनेवा में फ़्लाइट बदल कर वियना जाना पड़ता था। भाभा ने एक दिन पहले जिनेवा जाने वाली फ़्लाइट की बुकिंग कराई थी लेकिन किन्हीं कारणों से उन्होंने अपनी यात्रा एक दिन के लिए स्थगित कर दी थी।
 
24 जनवरी को एयर इंडिया का बोइंग 707 विमान 'कंचनजंघा' सुबह 7 बजकर 2 मिनट पर 4807 मीटर की ऊँचाई पर मोब्लां पहाड़ियों से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
 
ये विमान दिल्ली, बेरूत और जिनेवा होते हुए लंदन जा रहा था। इस क्रैश में सभी 106 यात्री और 11 विमानकर्मी मारे गए थे। कंचनजंघा लगभग उसी स्थान पर क्रैश हुआ था, जहाँ नवंबर, 1950 में एयर इंडिया का एक और विमान 'मलाबार प्रिंसेज़' क्रैश हुआ था।
 
'मलाबार प्रिसेज़' और 'कंजनजंघा' दोनों विमानों का मलबा और उस पर सवार लोगों के शव कभी नहीं मिल पाए। उस विमान का ब्लैक बॉक्स भी नहीं मिल पाया था। ख़राब मौसम के कारण विमान का मलबा खोजने का काम रोक देना पड़ा था।
 
फ़्रेंच जाँच समिति ने सितंबर, 1966 में फिर से अपनी जाँच शुरू की थी और मार्च 1967 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में उसने कहा था, "पहाड़ पर भारी बर्फ़बारी और पायलट और एयर ट्रैफ़िक कंट्रोलर के बीच ग़लतफ़हमी के कारण ये दुर्घटना हुई थी। विमान के कमांडर ने मोब्लां से अपने विमान की दूरी का ग़लत अंदाज़ा लगाया था। विमान का एक रिसीवर भी काम नहीं कर रहा था।" भारत सरकार ने फ़्रेंच जाँच रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया था।
 
भारतीय परमाणु कार्यक्रम के पितामह
सिर्फ़ 56 साल की उम्र में होमी भाभा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। उन्हें कॉस्मिक किरणों पर काम करने के लिए याद किया जाता है जिसकी वजह से उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था, लेकिन भाभा का असली योगदान भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम और टाटा इंस्टीटयूट की स्थापना करने में था।
 
भाभा की अचानक मौत ने पूरे भारत को सदमे में डाल दिया था। उस समय के सबसे बड़े उद्योगपति जेआरडी टाटा के लिए ये एक दोहरा झटका था। उनके साले गणेश बर्टोली एयर इंडिया के यूरोप के क्षेत्रीय निदेशक थे, वे भी इसी विमान में यात्रा कर रहे थे।
 
विमान पर सवार होने से दो दिन पहले भाभा ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सम्मान में हुई शोकसभा की अध्यक्षता की थी। कहा जाता है कि लाल बहादुर शास्त्री ने भी भाभा को अपने कैबिनेट में शामिल करने का प्रस्ताव किया था लेकिन तब भाभा ने राजनीतिक पद की बजाए वैज्ञानिक काम करते रहने का फ़ैसला किया था।
 
भाभा की मौत में सीआईए का हाथ?
सन 2017 में एक स्विस पर्वतारोही डेनियल रोश को आल्प्स पहाड़ों पर एक विमान का मलबा मिला था जिसके बारे में कहा गया था कि ये उसी विमान का मलबा था जिसमें होमी भाभा सफ़र कर रहे थे।
 
इस दुर्घटना से संबंधित साज़िश की अटकलें इसमें अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए का हाथ बताती हैं। वर्ष 2008 में एक पुस्तक 'कन्वरसेशन विद द क्रो' में पूर्व सीआईए अधिकारी रॉबर्ट क्रॉली और पत्रकार ग्रेगरी डगलस के बीच एक कथित बातचीत प्रकाशित हुई थी जिससे लोगों को आभास मिला कि इस दुर्घटना में सीआईए का हाथ था।
 
सीआईए में क्रॉली को 'क्रो' के नाम से जाना जाता था और सीआईए में उन्होंने अपना पूरा करियर वहाँ के योजना निदेशालय में बिताया था जिसे 'डिपार्टमेंट ऑफ़ डर्टी ट्रिक्स' भी कहा जाता था।
 
अक्तूबर, 2000 में अपनी मृत्यु से पहले क्रॉली की डगलस से कई बार बातचीत हुई थी। उसने डगलस को दस्तावेज़ों से भरे दो बक्से भेजे थे और निर्देश दिए थे कि उन्हें उनकी मौत के बाद खोला जाए।
 
पाँच जुलाई, 1996 को हुई बातचीत में डगलस ने क्रॉली को कहते बताया था, "साठ के दशक में हमारी भारत से मुश्किलें शुरू हो गईं थीं जब उसने परमाणु बम पर काम करना शुरू कर दिया था। वो दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि वो कितने चालाक हैं और जल्द ही वो दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने जा रहे हैं। दूसरी चीज़ ये थी कि वो सोवियत संघ के कुछ ज़्यादा ही नज़दीक जा रहे थे।"
 
इसी पुस्तक में क्रो ने भाभा के बारे में कहा था, "वो भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक हैं और वो परमाणु बम बनाने में पूरी तरह सक्षम थे। भाभा को कई बार इस बारे में सचेत किया गया था लेकिन उन्होंने उस ओर ध्यान नहीं दिया था। भाभा ने ये स्पष्ट कर दिया था कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें और भारत को दूसरी परमाणु शक्तियों के बराबर आने से नहीं रोक सकती। वो हमारे लिए एक ख़तरा बन गए थे। वो एक हवाई दुर्घटना में मारे गए थे जब उनके बोइंग 707 के कार्गो होल्ड में रखा बम फट गया था।"
 
भाभा के साथ 116 लोग मारे गए
किताब के अनुसार क्रॉली ने ये भी शेख़ी बघारी थी कि वो वियना के ऊपर जहाज़ में विस्फोट करना चाहते थे लेकिन फिर ये तय किया गया कि ऊँचे पहाड़ों पर विस्फोट से कम नुक्सान होगा। मैं समझता हूँ कि एक बड़े शहर पर बड़े जहाज़ के गिरने से कम नुक़सान उसके पहाड़ों पर गिरने से होगा। एजेंसी के अंदर क्रॉली सोवियत खुफ़िया एजेंसी केजीबी के विशेषज्ञ माने जाते थे।
 
इस किताब में उनको ये कहते हुए भी बताया गया है, "वास्तव में शास्त्री भारत का परमाणु कार्यक्रम शुरू करना चाहते थे इसलिए हमने उनसे भी छुटकारा पाया। भाभा चूँकि जीनियस थे और उनमें परमाणु बम बनवाने की क्षमता थी, इसलिए हमने इन दोनों से पिंड छुड़ा लिया। भाभा के बाद भारत भी शांत हो गया।"
 
भाभा के जीवनीकार बख़्तियार के दादाभौय लिखते हैं, "भाभा की मौत इटली के तेल व्यापारी एनरिको मैटी की तरह थी। उन्होंने इटली के पहले परमाणु रियेक्टर का काम शुरू करवाया था और कथित रूप से सीआईए ने उनके प्राइवेट जहाज़ में तोड़फोड़ करवा कर उन्हें मरवा दिया था। इन चौंकाने वाले दावों की पुष्टि कभी नहीं हो पाई। संभव है कि इसकी सच्चाई कभी सामने नहीं आ पाएगी। ग्रेगरी डगलस को ज़्यादा-से-ज़्यादा एक अविश्वसनीय स्रोत ही माना जा सकता है। अमेरिकी भले ही ये न चाहते हो कि भारत परमाणु बम बनाए लेकिन एक शख्स को मारने के लिए 117 लोगों को मरवाना समझ के परे है।"
 
परमाणु बम के मुद्दे पर भाभा और शास्त्री में मतभेद
24 अक्तूबर, 1964 को होमी भाभा ने आकाशवाणी पर परमाणु निरस्त्रीकरण पर बोलते हुए कहा था, "पचास परमाणु बमों का ज़ख़ीरा बनाने में सिर्फ़ 10 करोड़ रुपयों का ख़र्च आएगा और दो मेगाटन के 50 बनाने का ख़र्च 15 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगा। बहुत से देशों के सैनिक बजट को देखते हुए ये ख़र्च बहुत मामूली है।"
 
नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री पक्के गांधीवादी थे और परमाणु हथियारों के प्रति उनका विरोध जगज़ाहिर था। तब तक नेहरू से अपनी नज़दीकी के कारण परमाणु नीति पर भाभा की ही चलती आई थी लेकिन शास्त्री के आते ही हालात बदल गए।
 
बख़्तियार दादाभौय लिखते हैं, "भाभा इस बात से बहुत परेशान हुए कि वो अब प्रधानमंत्री के कार्यालय में बिना अप्वाइंटमेंट लिए नहीं घुस सकते थे। शास्त्री को वो सब समझने में दिक्कत हो रही थी जो भाभा उन्हें समझाना चाह रहे थे। चीन के परमाणु परीक्षण से पहले आठ अक्तूबर 1964 को भाभा ने लंदन में घोषणा कर दी थी कि भारत सरकार के फ़ैसला लेने के 18 महीनों के अंदर परमाणु बम का परीक्षण कर सकता है।
 
इस पर लाल बहादुर शास्त्री ने टिप्पणी करते हुए कहा था, "परमाणु प्रबंधन को सख़्त आदेश हैं कि वो कोई ऐसा प्रयोग न करे जो परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के ख़िलाफ़ हो।"
 
भाभा ने शास्त्री को मनाया
इसके कुछ दिनों के अंदर ही भाभा ने शास्त्री को परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए मना लिया था।
 
जाने-माने परमाणु वैज्ञानिक राजा रमन्ना ने इंदिरा चौधरी को दिए गए इंटरव्यू में स्वीकार किया था, "हमारे बीच इस पर चर्चा नहीं होती थी कि हम बम बनाएँ या नहीं। हमारे लिए ये ज़्यादा महत्वपूर्ण था कि हम इसे कैसे बनाएँ ? हमारे लिए ये एक आत्मसम्मान की बात थी। 'डेटेरेंस' का सवाल तो बहुत बाद में आया। भारतीय वैज्ञानिक के रूप में हम अपने पश्चिमी समकक्षों को दिखाना चाहते थे कि हम भी ये कर सकते हैं।"
 
ये देखते हुए कि अमेरिका से इस मामले में कोई मदद नहीं मिलेगी, भाभा ने अप्रैल, 1965 में 'न्यूक्लियर एक्सप्लोज़न फॉर पीसफ़ुल परपसेज़' के लिए एक छोटा दल बनाया जिसका प्रमुख उन्होंने राजा रमन्ना को बना दिया।
 
बख़्तियार दादाभौय लिखते हैं, "दिसंबर 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने भाभा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज़ी देने के लिए कहा। होमी सेठना तो यहाँ तक कहते हैं कि पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के दौरान शास्त्री ने भाभा से कुछ ख़ास करने के लिए कहा। भाभा ने कहा कि इस दिशा में काम हो रहा है। इस पर शास्त्री ने कहा आप अपना काम जारी रखिए लेकिन कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना कोई प्रयोग मत करिएगा।"
 
पखवाड़े के भीतर शास्त्री और भाभा दोनों की मौत
11 जनवरी, 1966 को लालबहादुर शास्त्री की अचानक ताशकंद में मौत हो गई। उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गाँधी को भाभा की सेवाएँ लेने का बहुत अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि उनके शपथ लेते ही 24 जनवरी को भाभा का हवाई दुर्घटना में निधन हो गया।
 
एक पखवाड़े के अंदर शास्त्री और भाभा दोनों का निधन हो गया। सरकार के किसी दूसरे व्यक्ति को इस बात की जानकारी नहीं थी कि शास्त्री और भाभा के बीच किन मुद्दों पर बात हो रही है क्योंकि परमाणु बम से संबंधित फ़ैसलों को फ़ाइल पर नहीं लिया जाता था। भाभा के निधन ने भारत की परमाणु नीति के निर्माण में बहुत बड़ा शून्य पैदा कर दिया था।
 
होमी भाभा के भाई जमशेद भाभा ने इंदिरा चौधरी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि उनकी माँ इस बात को कभी नहीं पचा पाईं कि भाभा ने उस जहाज़ से यात्रा नहीं की जिससे वो पहले जाने वाले थे।
 
दादाभौय लिखते हैं, "आरएम लाला ने मुझे बताया था कि भाभा ने पिप्सी वाडिया की वजह से अपना जाना स्थगित किया था जो कि उनकी महिला मित्र थीं। भाभा की माँ मेहरबाई ने इसका इतना बुरा माना था कि उन्होंने ताउम्र पिप्सी को माफ़ नहीं किया। ये आम चीज़ नहीं है कि किसी वैज्ञानिक की मौत को प्रधानमंत्री के शपथग्रहण समारोह पर तरजीह दी जाए। लेकिन भाभा के साथ ऐसा ही हुआ। जिस दिन इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, भाभा का हवाई दुर्घटना में देहांत हुआ। अगले दिन सभी अख़बारों ने उसे अपनी मुख्य ख़बर बनाया।"
 
युवा वैज्ञानिकों की पूरी जमात तैयार की
25 अगस्त को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च में भाभा के सम्मान में शोक सभा हुई। भाभा ने अपने जीवित रहते ही किसी बड़े शख्स की मौत पर छुट्टी देने की प्रथा पर रोक लगा दी थी क्योंकि उनका मानना था कि किसी व्यक्ति की मौत पर उसको सबसे बड़ी श्रद्धांजलि काम रोक कर नहीं बल्कि अधिक काम कर दी जाती है।
 
भाभा की मौत पर उनके पालतू कुत्ते क्यूपिड ने पहले तो खाना छोड़ दिया और कुछ दिनों बाद ही अपने मालिक के वियोग में उसकी मौत हो गई।
 
एमजीके मेनन का मानना था कि भाभा का देहांत उनके करियर की शिखर पर हुआ था और वो उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जो अपने जीवनकाल में ही लीजेंड बन गए थे।
 
इंदिरा गाँधी ने अपने शोक संदेश में कहा था, "हमारे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के महत्वपूर्ण चरण में होमी भाभा को खो देना हमारे देश के लिए बहुत बड़ा धक्का है। उनके बहुआयामी दिमाग और जीवन के कई पहलुओं में उनकी रुचि और देश में विज्ञान को बढ़ावा देने की उनकी प्रतिबद्धता को कभी भुलाया नहीं जाएगा।"
 
उनको श्रद्धाँजलि देते हुए जेआरडी टाटा ने कहा था, "होमी भाभा उन तीन महान हस्तियों में से एक हैं जिन्हें मुझे इस दुनिया में जानने का सौभाग्य मिला है। इनमें से एक थे जवाहरलाल नेहरू, दूसरे थे महात्मा गांधी और तीसरे थे होमी भाभा। होमी न सिर्फ़ एक महान गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे बल्कि एक महान इंजीनयर और निर्माता भी थे। इसके अलावा वो एक कलाकार भी थे। जितने लोगों को मैंने जाना है और उनमें वो दो लोग भी शामिल हैं जिनका ज़िक्र मैंने किया है, उनमें होमी अकेले शख़्स हैं जिन्हें 'कम्पलीट मैन' कहा जा सकता है।"
 
जब पूरा हुआ भाभा का सपना
भाभा की मौत के बाद विक्रम साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन वो पहले व्यक्ति नहीं थे जिनको ये पद ऑफ़र किया गया हो।
 
एस चंद्रशेखर की जीवनी बताती है, "भाभा के देहांत के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने ये पद मशहूर वैज्ञानिक एस. चंद्रशेखर को देने की पेशकश की थी लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था कि चंद्रशेखर अमेरिकी नागरिक हैं। जब चंद्रशेखर नवंबर, 1968 में दूसरा नेहरू स्मारक भाषण देने आए तो उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात करने की इच्छा प्रकट की। उस मुलाकात में उन्होंने इंदिरा गाँधी को स्पष्ट किया कि उनके पास भारत की नागरिकता नहीं है। तब जाकर ये पद विक्रम साराभाई को दिया गया।"
 
विक्रम साराभाई परमाणु हथियार और शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण कार्यक्रम के ख़िलाफ़ थे। साराभाई ने परमाणु कार्यक्रम विकसित करने की नैतिकता और उपयोगिता पर सवाल उठाए और उस पूरी परियोजना को पलटने के लिए ज़ोर लगा दिया जिसके भाभा सबसे बड़े पैरोकार थे।
 
साराभाई ने तत्कालीन कैबिनेट सचिव धरमवीरा से कहा था, "भाभा का उत्तराधिकारी बनना इतना आसान नहीं है। इसका मतलब मात्र उनका पद लेना नहीं है बल्कि उनकी विचारधारा को आत्मसात भी करना है।"
 
साराभाई को होमी सेठना के विरोध का भी सामना करना पड़ा जो अपने को भाभा का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे और इस पद को पाने के लिए उन्होंने एड़ी चोटी को ज़ोर लगा दिया था।
 
विक्रम साराभाई का भी बहुत कम उम्र में देहांत हो गया था। अतत: होमी भाभा का परमाणु विस्फोट करने का सपना राजा रमन्ना और होमी सेठना ने मई, 1974 में पूरा किया था।
 

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

चीन का 'रेशम रोड' बन रहा है उसी के गले की फांस