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FCRA: मोदी सरकार ने 6 सालों में क्या NGO के लिए एक मुश्किल दौर बनाया है?

BBC Hindi
मंगलवार, 29 सितम्बर 2020 (07:55 IST)
कीर्ति दुबे, बीबीसी संवाददाता
राज्यसभा में फ़ॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) अमेंडमेंट 2020 यानी FCRA बिल को पास किया गया है। नए बिल में अब ग़ैर-सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ के प्रशासनिक कार्यों में 50 फ़ीसद विदेशी फ़ंड की जगह बस 20 फ़ीसद फ़ंड ही इस्तेमाल हो सकेगा।
 
यानी इसमें 30% की कटौती कर दी गई है। अब एक एनजीओ मिलने वाले ग्रांट को अन्य एनजीओ से शेयर भी नहीं कर सकेगी और एनजीओ को मिलने वाले विदेशी फ़ंड स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली की ब्रांच में ही रिसीव किए जाएंगे।
 
ये और ऐसे ही नए नियमों के साथ नया FCRA संशोधित बिल लाया गया है। नया बिल देश में काम कर रहे तमाम एनजीओ के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर सकता है। ख़ास कर इससे छोटी ग़ैर-सरकारी संस्थाएं लगभग ख़त्म हो जाएंगी।
 
ये संस्थाएं देश में सामाजिक बदलाव लाने के लिए काम करती हैं लेकिन सिविल सोसायटी के लोग कह रहे हैं कि नए नियम इन्हें सशक्त करने की बजाय कमज़ोर कर रहे हैं और भारत में एनजीओ के लिए एक असहज माहौल बनता जा रहा है।
 
सरकार ने ये कहकर इस बिल को सदन में पेश किया है कि विदेशों से मिलने वाले फ़ंड को रेगुलेट करना चाहिए ताकि ये फ़ंड किसी भी सूरत में देश विरोधी गतिविधियों में इस्तमाल ना हों सके। इस क़ानून के पीछे सरकार का मक़सद विदेशी चंदा लेने पर पाबंदी, विदेशी चंदे के ट्रांसफर और एफसीआरए एकाउंट खोलने को लेकर स्पष्ट नियम और आधार नंबर देने अनिवार्यता की व्यवस्था लागू करना है।
 
लेकिन सिविल सोसायटी के लिए ऐसा माहौल बीते हफ़्ते पारित हुए एक बिल से ही नहीं बन गया है, बीते छह सालों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसने एनजीओ के कामकाज को मुश्किल बना दिया है। और अब एनजीओ इस नए क़ानून को देश में सिविल सोसायटी को कमज़ोर करने की सबसे बड़ी कोशिश मान रहे हैं।
 
ऑक्सफ़ैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर ने बीबीसी से इस नए क़ानून पर बात की। उन्होंने कहा, 'सिविल सोसायटी कभी सरकारों की प्रिय नहीं रही और होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि हमारा एक काम सत्ता में बैठे लोगों से कड़े सवाल पूछना भी है। साल 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने FCRA क़ानून को संशोधित करके और कठिन बनाया। 1976 में विदेशी फ़ंडिंग की मॉनिटरिंग के लिए FCRA क़ानून का गठन इंदिरा गांधी ने किया था। लेकिन पिछले छह साल से हम देख रहे हैं कि सिविल सोसायटी को विरोधी के रूप में देखा जा रहा है, ना कि ऐसे साथी के रूप में जो राष्ट्रनिर्माण में सरकार का साथ देता है। सिविल सोसायटी सवाल उठाएगी लेकिन सरकारों का साथ भी देती है लेकिन यहाँ तो विरोधी मान लिया गया है।'
 
'बुनियादी सोच का फ़र्क़ है, जहाँ कोई भी आलोचना करता है तो आप विरोधी मान लेते हैं और फिर प्रयास करते हैं कि कैसे उसके काम में बाधा डाल सकें, उसके लिए ऐसे नियम बना दिए जाएं कि वह काम ही ना कर सके। दरअसल एक नैरेटिव तैयार किया गया है, उस नैरेटिव से अलग हट कर अगर कोई बोलता है तो उसके लिए जगह नहीं है। अब जब ऐसा करना है तो उसके लिए क़ानूनी रास्ते भी तैयार किए जा रहे हैं।'
 
बीते सोमवार यानी 21 सितंबर को लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने इस बिल को लेकर कहा था कि यह विधेयक किसी धर्म या एनजीओ के खिलाफ नहीं है। इस विधेयक से विदेशी धन का दुरुपयोग रोकने में मदद मिलेगी और यह आत्मनिर्भर भारत के लिए भी जरूरी है।
 
एनसीपी नेता सुप्रिया सुले के एक सवाल के जवाब में राय ने कहा था कि कई एनजीओ के प्रमुख प्रशासनिक खर्चों के नाम पर 3-4 एसी लगवाते हैं और बड़ी कारें खरीदते हैं तो आख़िर वो कौन सा समाज का भला कर रहे हैं। कई एनजीओ अपने परिवार वालों को ही संस्था से जोड़ लेते हैं और उन्हें सैलरी देते हैं।
 
आधार नंबर को अनिवार्य करने पर सरकार का पक्ष रखते हुए राय ने कहा था कि आधार पहचान पत्र हैं और अगर कोई एनजीओ अपने पहचान पत्र को साझा नहीं करना चाहती तो ये संदेहास्पद है। सरकार इस बात पर ज़ोर दे रही है कि इस विधेयक का मक़सद विदेशी फंड को लेकर अधिक 'पारदर्शिता' लाना और इसके दुरुपयोग को रोकना है।
 
‘फ़ंड के दुरूपयोग पर क्या सरकार के पास डेटा है’
सेंटर फ़ॉर सोशल इंपेक्ट एंड फ़िलेंथ्रपि की प्रमुख इंग्रिड श्रीनाथ कहती हैं, 'ये देश की सिविल सोसाइटी को कंट्रोल करने का सबसे बड़ा क़दम है और यक़ीनन अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है। सरकार कह रही है कि विदेशी फ़ंड के दुरुपयोग को रोकने के लिए ये बिल लाया गया है लेकिन ऐसा कोई भी सबूत, डेटा नहीं दिखाया गया है जिससे उसके इस दावे को साबित किया जा सके कि कहीं भी विदेशी फ़ंड का इस्तमाल संस्थाओं ने ग़लत काम के लिए किए हो। क्या कोई क्रिमिनल केस दायर किया गया है, किसने फ़ंड का ग़लत इस्तमाल किया है? कितने फ़ंड को ऐसे कामों में इस्तेमाल किया गया है? कोई डेटा है सरकार के पास अपने तर्क को साबित करने का।'
 
'ऐसी संस्थाओं के उच्च पदों पर बैठे लोगों के आधार नंबर अनिवार्य कर दिए गए हैं जो प्रथम दृष्टया सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का उल्लंघन है जिसमें कहा गया है कि आधार अनिवार्य नहीं हो सकता। ऐसे में इन संस्थाओं के प्रमुख बनने और बोर्ड को ज्वाइन करने से लोग कतराएंगे क्योंकि कोई नहीं चाहता कि उसकी व्यक्तिगत जानकारियां सार्वजनिक हो।'
 
'सरकार कौन होती है डोनर को कंट्रोल करने वाली। अगर कोई डोनर चाहता है कि वह ट्रेनिंग, तकनीकी पक्ष के लिए ग्रांट दे तो क्या अब सरकार ये तय करेगी कि डोनर को किस चीज़ के लिए ग्रांट देना चाहिए और किसके लिए नहीं। ये तो निहायत ही कंट्रोल करने वाला फ़ैसला है। क्या सरकार कंपनियों को बताती है कि उन्हें कितना पैसा मार्केटिंग, रिसर्च और प्रोडक्ट पर ख़र्च करना चाहिए? तो आख़िर किस अथॉरिटी के तौर पर सरकार एनजीओ को ये बताना चाहती है कि उन्हें कैसे, कहां और कितने पैसे ख़र्च करना चाहिए।'
 
इस बदलाव के पीछे क्या राजनीतिक मंशा है?
इस नए संशोधन में फ़ंड्स को सब-ग्रांट करने पर भी रोक लगा दी गई है। जिसका मतलब है कि अब बड़ी एनजीओ छोटी एनजीओं को फ़ंड नहीं दे सकेंगी। आम तौर पर कई बार कई सारी एनजीओ मिलकर काम करती हैं और मिलने वाले फ़ंड बड़ी संस्थाओं की ओर से छोटी संस्थाओं को दे दिया करती थीं।
 
सब-ग्रांटिंग पर लगी रोक को लेकर अमिताभ कहते हैं, 'सबग्रांट पर रोक है यानी बड़ी एनजीओ जो छोटी एनजीओ को ग्रांट बाँट दिया करती थीं वह रोक दिया गया है। ऐसे में जो मिलकर समन्वय के साथ काम करने की धारणा थी वो ख़त्म कर दी जा रही है। अब बड़ी संस्थाएं जो दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई में बैठी हैं उन्हें नए लोगों को नौकरी पर रखकर संस्था का फैलाव कराना होगा। अब तक हमें अगर पाँच करोड़ मिल गए तो हम सुदूर इलाक़ों में काम करने वाली छोटी संस्थाओं को बाँट देते थे और वह संस्थाएं ज़मीन से जुड़ कर काम करती थीं, लेकिन अब हम ये नहीं कर सकते। इन नए संशोधन में ऐसे बदलाव क्यों किए गए हैं इसका कोई तर्क नहीं समझ आता लेकिन फिर भी इसे क़ानून बना दिया गया है। ये एक के बाद एक ऐसे फ़ैसले किए जा रहे हैं जिनके पीछे कोई तर्क नज़र नहीं आता।'
 
'देखिए बिना राजनीतिक मंशा को समझे इस नए संशोधन को समझा ही नहीं जा सकता। आख़िर क्यों सरकार चाहती है कि छोटी एनजीओ को सब ग्रांट ना किया जाए, अगर मैं दिल्ली में बैठ कर फ़ंड का आवंटन, दुमका-झारखंड, बिलासपुर- छत्तीसगढ़ में ऐसी संस्थाओं को दे रहा हूं जो वहां के लोगों की मदद करें तो इसमें दिक़्क़त क्या है, मक़सद तो यही है कि ज़रूरतमंदों की मदद हो।'
 
इनग्रिट श्रीनाथ भी सब-ग्रांटिंग पर लगी रोक पर हैरानी जताते हुए कहती हैं, 'ये नियम पहले से ही तय हैं कि उन्हीं एनजीओ को सब-ग्रांट दिया जाता है जो FCRA के तहत रजिस्टर्ड हैं। ये डेटा सरकार की वेबसाइट पर होता है। लेकिन सब ग्रांट पर रोक लगा दिया गया है इससे छोटी-छोटी संस्थाएं ख़त्म हो जाएंगी, वो संस्थाएं जो सक्षम नहीं हैं सीधे फ़ंडिंग पाने में वो बड़ी संस्थाओं के ज़रिए जैसे सेव द चाइल्ड, ऑक्सफ़ैम, प्रथम, अक्षयपात्र जैसी संस्थाओं के ज़रिए ही तो मदद पाती हैं। वो भी छीन लिया गया है।'
 
नियमों के मुताबिक़ उन्हीं संस्थाओं को सब ग्रांट दिया जा सकता है जो FCRA के तहत रजिस्टर्ड हों। गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर हर तीन महीने में हर एनजीओ को अपना फ़ंड का ब्यौरा अपलोड करना पड़ता है।
 
अमिताभ कहते हैं, 'मैं मानता हूं कि बाक़ी सेक्टर से ज़्यादा जवाबदेही सिविल सोसाइटी सेक्टर पर रखी जाए क्योंकि हम सवाल पूछते हैं और हमारे घर पहले साफ़ होने चाहिए। लेकिन क्या छोटे एनजीओ को सब ग्रांट नहीं देने से जवाबदेही बढ़ जाएगी? क्या एसबीआई की नई दिल्ली ब्रांच में ही विदेशी फ़ंड आने से जवाबदेही बढ़ जाएगी? आप ये कहना चाह रहे हैं कि स्टेट बैंक को छोड़ कर किसी और बैंक पर यक़ीन नहीं है सरकार को। ये कितनी हैरानी वाली बात है कि सरकार कह रही है अन्य नैशनलाइज़्ड बैंक, बड़े प्राइवेट बैंक जो आरबीआई के नियमों के तहत काम करते हैं वो ट्रांज़ैक्शन में पारदर्शिता नहीं रख पाएंगे। ये हँसने जैसा तर्क लगता है। संदेह है तो सवाल पूछिए। हर तीन महीने में चैरिटी करने वाले से और कितने पैसे मिले इसका ब्यौरा सरकार की वेबसाइट पर हमें शेयर करना होता है और इससे ज़्यादा जवाबदेही क्या हो सकती है।'
 
छह साल में NGOsके लिए किए गए कड़े फ़ैसले
1976 में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो पहली बार फ़ॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेटरी एक्ट आया लेकिन साल 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने पहली बार एक कड़ा संशोधन लाया। जिसके तहत कोई भी पॉलिटिकल नेचर की संस्थाओं की विदेशी फ़ंडिंग पर रोक लगा दी गई।
 
साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से कई ऐसे फ़ैसले लिए गए हैं जिन्हें सिविल सोसायटी के लोग शिकंजा कसने का लागातार प्रयास मानते हैं।
 
20 हज़ार संस्थाओं के लाइलेंस रद्द
साल 2016 में 20,000 एनजीओ के FCRA लाइसेंस रद्द कर दिए गए थे। यानी उनकी विदेशी फ़ंडिंग पर रोक लगा दी गई। सरकार ने कहा कि इन संस्थाओं ने फ़ॉरेन फ़ंडिग से जुड़े नियमों का ‘उल्लंधन’ किया है।
 
बेन एंड कंपनी की साल 2019 में आई इंडियन फ़िलेंट्रफि की रिपोर्ट बताती है कि साल 2015 से 2018 के बीच एनजीओ को मिलने वाले विदेशी फ़ंड में 40 फ़ीसद की कमी आई है।
 
जनवरी 2019 में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा को दिए गए एक जवाब में बताया था कि बीते तीन साल में 2872 ग़ैर-सरकारी संस्थाओं पर रोक लगाई गई जिसमें ग्रीनपीस और सबरंग ट्रस्ट जैसी बड़ी नामी संस्थाएं शामिल थीं, जिनके काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा चुका है।
 
साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भुवनेश्वर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कह चुके हैं कि वह 'एनजीओ की साज़िश का शिकार' हैं। उन्होंने कहा था, 'एनजीओ वाले मुझे हटाने और मेरी सरकार गिराने की साज़िश रचते हैं। वो ग़ुस्सा हैं क्योंकि मैंने कुछ एनजीओ से उनकी विदेशी फ़ंड की जानकारी माँग ली है।'
 
इस साल एक फ़रवरी को जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आम बजट पेश किया तो उन्होंने फ़ाइनेंस बिल में भी कई संशोधनों का ज़िक्र किया। इनमें से एक था इनकम टैक्स एक्ट में किया गया बदलाव।
 
ये नया नियम कहता है कि हर संस्था का रजिस्ट्रेशन अब पाँच साल के लिए ही वैध होगा। यानी सभी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को हर पाँच साल बाद अपना रजिस्ट्रेशन रिन्यू कराना होगा। साथ ही हर संस्था को नए एक्ट के तहत नया रजिस्ट्रेशन भी कराना होगा।
 
संसद में दिए गए एक जवाब में सरकार ने बताया था कि 2015-16 में एनजीओ ने 17,773 करोड़ विदेश फ़ंड पाया और 2016-17 में ये राशि घटकर लगभग एक तिहाई 6,499 करोड़ रह गई।
 
इनग्रिड श्रीनाथ कहती हैं, 'सरकार का ये नया क़ानून ऐसे समय में आया है जब एनजीओ को सबसे ज़्यादा आर्थिक मदद की ज़रूरत है। कोरोना के कारण बड़ी कंपनियां इतने नुक़सान में हैं कि जब वो अपने कर्मचारियों को नौकरी पर नहीं रख पा रहीं हैं तो सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) कैसे देंगी। सरकार को मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए था तो उन्होंने उल्टा ऐसा क़दम उठाया है जो देश की सिविल सोसायटी के वजूद पर हमले जैसा है।'

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