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वुसअत का ब्लॉग: देख तो रहे हैं, 'हम देखेंगे' लिखने की क्या ज़रूरत?

वुसअत का ब्लॉग: देख तो रहे हैं, 'हम देखेंगे' लिखने की क्या ज़रूरत?
, सोमवार, 9 जुलाई 2018 (14:48 IST)
- वुसअतुल्लाह ख़ान (वरिष्ठ पत्रकार, पाकिस्तान से)
 
फ़िल्म एंड टीवी इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (एफ़टीआईआई) पुणे के हॉस्टल में रहने वाले दो छात्रों ने कैंटीन की दीवार पर एक मछली, एक आंख और 'हम देखेंगे' लिख दिया। बवाल तो मचना था। इंस्टिट्यूट के प्रशासन को लगा कि इन छात्रों ने कैंटीन की शक्ल-ओ-सूरत में बदलाव के ख़िलाफ़ 'हम देखेंगे' लिखकर धमकी दी है इसलिए हॉस्टल से इनका बोरिया-बिस्तर गोल होना चाहिए।
 
 
मगर एक छात्र दीवानजी का कहना है कि धमकी-वमकी नहीं दी बल्कि मैं चूंकि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी का भक्त हूं इसलिए उनके एक मिसरे 'लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' में से 'देखेंगे' दीवार पर लिख दिया, इसमें धमकी कहां से आ गई। पर डायरेक्टर साब कहते हैं कि ज़्यादा सियाने मत बनो, पहले यह सब दीवार से मिटाओ वरना बोरिया-बिस्तर बांध लो।
 
 
फ़ैज़ साहब की पाकिस्तान में कौन-सी इज़्ज़त
मेरा मानना है कि यह कोई ऐसी घटना नहीं थी कि जिसे राई का पहाड़ बना दिया जाए। जब फ़ैज़ साहब की बेटी मुनीज़े को दो महीने पहले भारत का वीज़ा नहीं मिला, तभी पुणे इंस्टीट्यूट के इन मूर्ख बालकों को समझ जाना चाहिए था कि हवा किस तरफ़ को चल रही है। और ख़ुद फ़ैज़ साहब की पाकिस्तान में कौन-सी इज़्ज़त थी।
 
 
जब उन्हें लेनिन प्राइज़ मिला तो न सिर्फ़ अय्यूब ख़ान के वज़ीरों बल्कि जमात-ए-इस्लामी ने भी उन्हें रूसी एजेंट बना दिया। मगर ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो प्रधानमंत्री बने तो इसी रूसी एजेंट को पाकिस्तानी संस्कृति की तरक़्क़ी के लिए अपना सलाहकार रख लिया।
 
 
वो तो भला हो ज़िया-उल-हक़ सरकार का जिसने हुक्म जारी किया कि रेडियो पाकिस्तान या सरकारी टीवी से फ़ैज़ साहब का कलाम प्रसारित नहीं होगा। यह दोनों संस्थाएं क़ौम की अमानत हैं इसलिए क़ौम का पैसा नज़रिया-ए-पाकिस्तान के विरोधियों और रूसी कॉम्युनिस्ट एजेंटों पर बर्बाद नहीं हो सकता।
 
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भारतीय शायर पाकिस्तान रेडियो में हुए बैन
ज़िया-उल-हक़ ने कोई नया काम नहीं किया था। अय्यूब ख़ान ने भारत से 1965 की लड़ाई जीतने या हारने के बाद एक और बढ़िया काम यह किया कि रेडियो पाकिस्तान को चिट्ठी जारी की गई कि किसी भारतीय शायर का कलाम प्रसारित नहीं होगा।
 
 
चुनांचे जितने भी शायर जो नाम से भारतीय से लगते थे, उन सब की रिकॉर्डिंग अलमारियों में रख दी गईं। फ़िराक़ साब इसलिए बच गए क्योंकि किसी को उनका असली नाम रघुपति सहाय मालूम ही नहीं था। इक़बाल इसलिए बच गए क्योंकि वो तो हैं ही क़ौमी शायर, यह अलग बात है कि उनका देहांत पाकिस्तान बनने से नौ साल पहले ही हो गया था।
 
 
आज के भारत में जब फ़िल्म, साहित्य, राजनीति, शिक्षा और धर्म के पर्दे में छिपे द्रोहियों का पता लगाकर पाकिस्तान भिजवाने की कोशिशें ज़ोरों पर हैं, ऐसे वक़्त पाकिस्तानियों वो भी फ़ैज़ साहब को पसंद करके दीवारों पर उनकी शायरी लिखना सिवाय पागलपन के क्या है।
 
 
मैं पुणे इंस्टीट्यूट के इन दोनों छात्रों से कहूंगा कि माफ़ी मांगें और 'हम देखेंगे' फिर कभी न लिखें। देख तो रहे हैं लिखने की क्या ज़रूरत है।
 

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