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KCR को टक्कर देने के लिए क्या है बीजेपी का ‘ऑपरेशन तेलंगाना’

KCR को टक्कर देने के लिए क्या है बीजेपी का ‘ऑपरेशन तेलंगाना’

BBC Hindi

, शनिवार, 2 जुलाई 2022 (07:57 IST)
जी.एस. राममोहन, एडिटर, बीबीसी तेलुगू सेवा
पिछले एक महीने से देशभर के प्रमुख अख़बार तेलंगाना सरकार के विज्ञापनों से भरे हुए दिख रहे हैं। इनमें केसीआर की तस्वीरों को प्रमुखता से जगह दी गई। जनता के करोड़ों रुपए खर्च करके चंद्रशेखर राव ने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को साफ़ कर दिया है। छवि निखारने की कोशिश के तौर पर तेलंगाना सरकार ने उन किसानों के परिजनों को मुआवज़ा देने का भी एलान किया है जिनकी मौत दिल्ली की सीमा पर सालभर चले विरोध प्रदर्शनों के दौरान हो गई थी।
 
इतना ही नहीं केसीआर की सरकार ने गलवान घाटी में मारे गए सैनिकों के परिजनों के लिए भी मुआवज़ा देने की घोषणा की है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने के लिए दिल्ली में बड़े विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया।
 
हालांकि पार्टी के राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के गठन के संकेत देने के बावजूद, इस दिशा में कोई ख़ास कामयाबी हासिल होती हुई नहीं दिख रही है। फिलहाल के लिए तो ऐसा लगता है कि अपनी इस योजना पर वह जो भी प्रयास कर रहे थे, उसे उन्होंने रोक दिया है।
 
क्यों महत्वपूर्ण है बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक
बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के सभी चेहरे 2 से 3 जुलाई के बीच होने जा रही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने के लिए हैदराबाद जा रहे हैं। प्रकाश जावड़ेकर, साध्वी प्रज्ञा, राज्यवर्धन सिंह राठौर जैसे नेता जो पूरे देश में पहचान रखते हैं, आज की तारीख़ में तेलंगाना में बीजेपी की राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने में जुटे हुए हैं।
 
लंबे समय तक आरएसएस से जुड़े रहने वाले और राजनीतिक विश्लेषक राका सुधाकर राव ने बीबीसी को बताया, "राज्य के सभी 119 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में कुल 119 नेता दलितों के घरों में रहते हुए पार्टी को मज़बूत बनाने के लिए काम कर रहे हैं। वे पार्टी के बूथवार-कामकाज की समीक्षा कर रहे हैं।"
 
उत्तर भारत में बीजेपी की लोकप्रियता अपने चरम पर है और अब बीजेपी इसे दक्षिण भारत में भी कायम करने की कोशिश कर रही है। बीजेपी अब दक्षिण भारत में भी वही लोकप्रियता हासिल करने के लिए ज़ोर लगा रही है। इसी क्रम में बीजेपी का सारा ध्यान फिलहाल 'ऑपरेशन-तेलंगाना' पर है।
 
सुधाकर राव ने बताया कि बीजेपी दक्षिण में भी लोकप्रिय पार्टी बनना चाहती है और इसके लिए उसका सारा ध्यान 'ऑपरेशन तेलंगाना' पर है।
 
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ऑपरेशन तेलंगाना
बीजेपी 'सालु डोरा, सेलावु डोरा' (आपको जितना करना था, आप कर चुके। अब आप जाएं।) नारे के साथ आगे बढ़ रही है। वहीं दूसरी ओर टीआरएस ने पूरे हैदराबाद को पोस्टरों और बैनरों से पाट दिया है।
 
टीआरएस ने बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर पर लिखवाया है- "सालू मोदी, संपाकू मोदी" यानी (अब बहुत हो गया मोदी, हमें और ना मारो)। हैदराबाद शहर और यहां के लोगों के लिए यह बहुत नया है और ऐसा पहली बार भी है जब हैदराबाद के लोग इस तरह की 'पोस्टर-वॉर' के साक्षी बन रहे हैं।
 
हालांकि साल 2018 तक ख़ुद बीजेपी के नेताओं के लिए भी यह यक़ीन कर पाना मुश्किल था कि वे तेलंगाना में इस तरह आगे बढ़ जाएंगे कि टीआरएस जैसी पार्टी को इतनी मज़बूत चुनौती दे सकेंगे।
 
साल 2018 के चुनावों में बीजेपी को काफी शर्मनाक नतीजों का सामना करना पड़ा था। नतीजों में टीआरएस ने 88 सीटों पर जीत दर्ज करके बहुमत का आंकड़ा पार किया था और बीजेपी को सिर्फ़ एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था। लेकिन साल 2019 के संसदीय चुनावों ने पहली बार बीजेपी को उम्मीदें दीं।
 
जीत से बंधी बीजेपी की उम्मीदें
केसीआर ने निश्चित तौर पर यह महसूस किया था कि अगर लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव भी कराए जाते हैं तो उस पर मोदी लहर का असर ज़रूर पड़ेगा। ऐसे में केसीआर ने जल्दी चुनाव कराने का निर्णय किया। हालांकि लोकसभा चुनावों को लेकर उनकी आशंका सही साबित हुई।
 
साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने राज्य की चार सीटों पर कब्ज़ा कर लिया। इन चुनावों में जीत से बीजेपी का यह यक़ीन भी बढ़ा कि अगर तेलंगाना में अच्छी तरह से ध्यान दिया जाए तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वो जीतें भी।
 
इसके बाद ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनावों में जब उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया, तो इससे उनका आत्मविश्वास एक क़दम और आगे बढ़ गया। इसके बाद दो विधानसभा क्षेत्रों में हुए उप-चुनाव और उसके परिणाम ने उनमें ऊर्जा का संचार किया।
 
हालांकि उप-चुनावों के नतीजे उम्मीदवारों की व्यक्तिगत क्षमता का परिणाम अधिक थे लेकिन बेशक बीजेपी इसे भुनाने में कामयाब रही। इन सभी नतीजों ने कहीं ना कहीं यह संदेश ज़रूर दिया है और बीजेपी को एक ऐसी छवि पेश करने में मदद भी की है कि वह एक ऐसी पार्टी है जो जीतने की योग्यता रखती है।
 
दूसरी ओर कांग्रेस की आंतरिक कलह और नेतृत्व की कमी बीजेपी के लिए किसी 'वरदान' से कम नहीं है। बीजेपी अब उन नेताओं को अपने में शामिल करने और लुभाने की कोशिश कर रही है जो टीआरएस से खुश नहीं हैं।
 
हालांकि कांग्रेस अभी भी विधानसभा में आधिकारिक विपक्षी पार्टी है लेकिन बीजेपी ख़ुद को तेलंगाना में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर पेश करने में कामयाब रही है।
 
पिछड़ों और दलितों को लुभाने की कोशिश
तेलंगाना में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग स्ट्रेटजी (सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति) बेहद स्पष्ट है। उत्तर भारत में बीजेपी की पहचान ब्राह्मण-बनिया वाली पार्टी मानी जाती है लेकिन इसके विपरीत तेलंगाना में वह इस टैग से छुटकारा पाने की कोशिश कर रही है। अपने हालिया प्रयासों से बीजेपी ऐसा साबित कर पाने में काफी हद तक सक्षम भी है।
 
सुधाकर राव कहते हैं कि तेलंगाना में बीजेपी पिछड़े वर्ग को लुभाने की कोशिश कर रही है। इसके साथ ही वह दलितों को भी अपनी ओर करने की कोशिश कर रही है।
 
तेलंगाना में पार्टी के अध्यक्ष बंदी संजय, मुन्नूरु कापू जाति से हैं जो कि एक पिछड़ी जाति है।
 
मुन्नूरु कापू जाति के अन्य नेता डॉ. के. लक्ष्मण को हाल ही में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए मनोनित किया गया था। बंदी संजय लगभग हर रोज़ केसीआर के लिए डोरा शब्द का इस्तेमाल करते हैं। डोरा शब्द सामंती इतिहास को समेटे हुए है।
 
तेलंगाना में बीते दो-तीन सालों से शिवाजी की प्रतिमाओं की स्थापना का काम तेज़ी से चल रहा है। शिवाजी को महाराष्ट्र से, निजामों के तेलंगाना में ले आना भी एक रणनीति है। हैदराबाद के लिए यह पूरी तरह से एक नई घटना है। इससे भी पहले, विवेकानंद की मूर्तियों की आंदोलन स्तर पर स्थापना होती रही है।
 
इन सारे घटनाक्रमों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बीजेपी, तेलंगाना के ग्रामीण इलाक़ों में अपनी छवि को लगातार मज़बूत करने में लगी हुई है।
 
कांग्रेस की तुलना में बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जिसके पास स्वतंत्रता आंदोलन और इसकी विरासत से जुड़ा दिखाने के लिए इतना कुछ नहीं है, वह कुछ चुनिंदा हिंदू राजाओं और संतों के नाम पर अपनी ज़मीन मज़बूत करने की कोशिश में जुटी हुई है।
 
बीजेपी गांधी, नेहरू, पटेल और आंबेडकर की छवि को अपनी राजनीति में अलग-अलग रूप में शामिल कर चुकी है और अब इसी क्रम में वह सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा को इंडिया गेट पर लगाने जा रही है।
 
इसी रणनीति के तहत बीजेपी क्षेत्रीय नेताओं से जुड़ी बातों को उजागर कर रही है और उनमें से अपनी विचारधारा के उपयुक्त नेताओं को चुन रही है। एक ओर जहां पूरे ग्रामीण इलाक़े में टीआरएस और कांग्रेस के कैडर हैं, वहीं बीजेपी अभी भी एक स्थायी कैडर स्थापित करने के लिए जूझ रही है और इसके लिए इमेज बनाना एक अहम पहलू है।
 
किन मुद्दों को लेकर होगी चर्चा
इन सारी बातों से यह तो साफ़ है कि तेलंगाना में राजनीतिक लड़ाई कम और मनोवैज्ञानिक युद्ध अधिक है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चार जुलाई को आंध्र प्रदेश में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह का नेतृत्व करने वाले अल्लूरी सीताराम राजू की प्रतिमा का अनावरण करने वाले हैं।
 
हैदराबाद में होने जा रही बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का मुख्य एजेंडा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की ज़मीन को और मज़बूत करना है। जिसमें दक्षिण भारत पर विशेष रूप से चर्चा होनी है और उसमें भी ख़ासतौर पर तेलंगाना को लेकर।
 
सुधाकर राव कहते हैं, "राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मुख्य तौर पर देशभर में पार्टी के संगठन को और मज़बूत करने, लीडरशिप और कैडर्स के बीच मज़बूत दो-तरफ़ा संवाद को विकसित करने और सामाजिक विविधता के विस्तार को बढ़ाने पर चर्चा होनी है।"
 
सुधाकर राव कहते हैं कि इस बैठक में नेतृत्व की कमान युवा चेहरों को सौंपने जैसे विषयों पर भी मंथन होने की उम्मीद है। साथ ही हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और जन-कल्याण तीन ऐसे मुद्दे हैं, जिसकी पृष्ठभूमि पर चुनावी रणनीति तैयार की जाएगी।
 
हैदराबाद की अपनी अंतिम यात्रा के दौरान, पीएम मोदी ने चुनावों की घोषणा के रूप में कहा था कि राज्य के लोग दमनकारी, परिवारवादी शासन से आज़ादी पाने के लिए विकल्प की तलाश में हैं। यहां तक की मोदी ने केसीआर पर तंज़ करते हुए यह तक कह दिया था कि 'एक ओर जहां आपका मुख्यमंत्री अंधविश्वास में विश्वास करने वाला शख़्स है, मैं विज्ञान को तवज्जो देने वाला आदमी हूं।'
 
अब सभी की निगाहें तीन जुलाई को हैदराबाद के परेड ग्राउंड में होने वाली सभा पर टिकी हुई हैं। इस बात की संभावना जताई जा रही है कि अपने संबोधन में वह एकबार फिर परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कुठाराघात करेंगे।
 
कल्याणकारी योजनाओं के सहारे आगे बढ़ना बीजेपी के लिए मुश्किल
हालांकि दक्षिण भारत के मतदाताओं को कल्याणकारी मुद्दों और वादों के नाम पर अपने साथ जोड़ना बीजेपी के लिए एक मुश्किल टास्क है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि दक्षिण भारत के राज्य तुलनात्मक तौर पर इन मायनों में काफी बड़े हैं।
 
दरअसल, पीएम मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर जो स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की है, उसका मूल दिवंगत नेता वाई।एस। राजशेखर रेड्डी की शुरू की गई आरोग्यश्री योजना ही है।
 
अविभाजित आंध्र प्रदेश के दौर में शुरू की गई इस योजना का ज़िक्र आज भी दोनों तेलुगू राज्यों की किताबों में मिलता है। इसके अलावा केंद्र सरकार की किसान योजना, केसीआर की काफी पहले शुरू की गई रैतु बंधु योजना पर आधारित है।
 
इसके अलावा दोनों ही तेलुगू राज्यों में जिस तरह की कल्याणकारी योजनाएं लागू हैं, वे केंद्र की योजनाओं की तुलना में कहीं अधिक व्यापक हैं। इसके अलावा दोनों ही तेलुगू राज्यों में जाति विशेष के आधार पर दी जाने वाली कल्याणकारी योजनाएं भी हैं।

तेलंगाना सरकार के पास राज्य के लोगों का सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक डेटा मिनट स्तर पर मौजूद है, जो उसने समग्र कुटुम्ब सर्वेक्षण के दौरान इकट्ठा किया था। टीआरएस की रणनीति का आधार यही डेटा है। साथ ही, टीआरएस ने हाल ही में दलित-बंधु योजना लागू की है। राजनीतिक स्तर पर इस योजना से भी उसे काफी उम्मीदें हैं।
 
टीआरएस की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले नवीन कुमार का मानना है कि उप-चुनावों में बीजेपी की जीत को पार्टी की जीत से अधिक, व्यक्तिगत जीत के तौर पर देखा जाना चाहिए। हाल की इन जीतों के आधार पर बीजेपी को लेकर कोई राय बनाना ना तो समझदारी है और ना ही व्यावहारिक।
 
नवीन कुमार मानते हैं कि साल 2018 के अपने आंकलन की तर्ज़ पर केसीआर इस बार भी जल्दी चुनावों की घोषणा कर सकती है। तेलंगाना में आगामी विधानसभा चुनाव साल 2023 में होने हैं।
 
टीआरएस के लोगों को आशंका है कि संसदीय चुनाव भी जल्दी हो सकते हैं। कहा जा रहा है कि इन सभी को ध्यान में रखते हुए केसीआर जल्दी चुनाव की घोषणा कर सकते हैं।
 
हालांकि आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी, बीजेपी समर्थक है। बावजूद इसके इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि आंध्र प्रदेश में भी चुनाव जल्दी हो सकते हैं।
 
बीजेपी की कार्यकारिणी की बैठक में संपूर्ण शाकाहार रहेगा जबकि तेलंगाना एक ऐसा प्रांत है जहां 99 फ़ीसद लोग मांस (रजिस्ट्रार सर्वे ऑफ़ इंडिया 2016) खाते हैं।

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