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असम: झगड़ा हिंदू बनाम मुसलमान या असमिया बनाम बंगाली?

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मंगलवार, 2 जनवरी 2018 (12:53 IST)
- बैकुंठ गोस्वामी (वरिष्ठ पत्रकार)
असम में आज़ादी के बाद साल 1951 में एक नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन तैयार किया गया था। ये रजिस्टर 1951 की जनगणना के बाद तैयार हुआ था और इसमें तब के असम के रहने वाले लोगों को शामिल किया गया था।
 
लेकिन बाद में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद के बांग्लादेश से असम में लोगों के अवैध तरीके से आने का सिलसिला शुरू हो गया और उससे राज्य की आबादी का चेहरा बदलने लगा। इसके बाद असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ा। इन्हीं हालात में साल 1979 से 1985 के दरमियां छह सालों तक असम में एक ज़बर्दस्त आंदोलन चला।
 
लेकिन सवाल ये पैदा हुआ कि कौन विदेशी है और कौन नहीं? ये कैसे तय किया जाए? विदेशियों के ख़िलाफ़ मुहिम में ये विवाद की एक बड़ी वजह थी। साल 1985 में आसू और दूसरे संगठनों के साथ भारत सरकार का समझौता हो गया। इसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है।
 
समझौते के तहत 25 मार्च 1971 के बाद असम आए हिंदू-मुसलमानों की पहचान की जानी थी और उन्हें राज्य से बाहर किया जाना था। साल 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय साल 1951 के नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन को अपडेट करने का फैसला किया गया।
 
सुप्रीम कोर्ट की निगरानी
ये तय हुआ कि असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 से पहले असम में अवैध तरीके से भी दाखिल हो गए लोगों का नाम नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन में जोड़ा जाएगा। लेकिन विवाद यही नहीं रुका।
 
मामले अदालतों तक गए और साल 2015 में सभी मामलों को इकट्ठा करके सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में प्रतीक हजेला नाम के एक आईएएस अधिकारी को एनआरसी का काम दे दिया गया। प्रतीक हजेला को एनआरसी का कोर्डिनेटर बनाया गया था और एनआरसी अपडेट किए जाने का काम समय सीमा के भीतर खत्म करना था।
 
31 दिसबंर, 2017 को एनआरसी के मसौदे को पब्लिश किए जाने की डेडलाइन तय की गई थी। लेकिन एनआरसी कोर्डिनेटर की ओर से ये कहा गया कि इस समय सीमा के भीतर इसे खत्म करना संभव नहीं है और इसके लिए जुलाई तक का समय मांगा गया। सुप्रीम कोर्ट इसके लिए तैयार नहीं हुआ।
 
कोर्ट ने कहा कि जितना तैयार हुआ है, उतना ही 31 दिसंबर, 2017 तक पब्लिश किया जाए। इसलिए रविवार को 12 बजे रात को ये ड्राफ्ट जारी किया गया और इसमें दो करोड़ से ज्यादा लोगों के नाम हैं।
 
गड़बड़ियां भी हैं...
बाकी लोगों के नाम वेरिफिकेशन प्रोसेस में हैं और जिन लोगों के नाम ड्राफ्ट में नहीं हैं, उन्हें भी अपनी बात रखने के लिए समय दिया जाएगा। लेकिन एनआरसी के इस ड्राफ्ट की वजह से असम में तनाव का माहौल भी महसूस किया जा रहा है।
 
लोग ये पूछ रहे हैं कि अगर किसी का नाम एनआरसी में नहीं है तो क्या उसे विदेशी कह कर बुलाया जाएगा। उनके साथ क्या किया जाएगा, इस पर भारत सरकार को बाद में फैसला करना है। अभी तक जो स्थिति है, उसमें ये देखा गया है कि एक ही परिवार के दो लोगों का नाम एनआरसी में है और एक व्यक्ति का नहीं है।
 
ऐसी कई गड़बड़ियां सामने आई हैं और उम्मीद की जाती है कि एनआरसी शिकायत मिलने पर इसमें सुधार करेगा।
 
सवाल ये भी है कि जिस एनआरसी की शुरुआत 1951 में हुई, वो 2018 तक कैसे अटका रहा। ये मुद्दा 1951 के एनआरसी को अपडेट करने का है। उस वक्त के एनआरसी का मक़सद ये पता करना था कि बंटवारे के बाद कौन कहां है, असम में कितने आदमी हैं, और वे कौन हैं, इस रजिस्टर में उनके नाम दर्ज होने थे।
 
लेकिन बाद में लोगों के आने का सिलसिला चलता रहा। लोग कानूनी तरीके से भी आए और अवैध तरीके से भी आए। क़ानूनी तरीके से बहुत से लोग आए लेकिन लौटे नहीं। लेकिन इसी बीच असम समझौता हो गया। असम समझौते के मुताबिक 21 मार्च, 1971 की तारीख एनआरसी अपडेट के लिए तय की गई।
 
ये वही तारीख थी जब शेख मुजीबुर रहमान ने बांग्लादेश के संप्रभु होने की घोषणा की थी। हालांकि सत्ता के हंस्तांतरण की घोषणा 16 दिसंबर, 1971 को की गई थी।
 
एनआरसी पर राजनीति
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन पर राजनीति शुरू से चल रही है। असम में मुसलमानों की आबादी 34 फीसदी से ज्यादा है। इनमें से 85 फीसदी मुसलमान ऐसे हैं जो बाहर से आकर बसे हैं। ऐसे लोग ज्यादातर बांग्लादेशी हैं। ये लोग अलग-अलग समय में आते रहे, इसी को अपना देश मानने लगे, यहां की भाषा सीखी।
 
बीजेपी ने चुनावों से पहले ये वादा किया था कि असम में अवैध घुसपैठ करने वाले हिंदुओं को नागरिक का दर्जा दिया जाएगा। इसी सिलसिले में नागरिकता कानून में संशोधन के लिए एक कानून संसद में लंबित है। अगर ये विधेयक पारित हो जाता है तो हिंदुओं को कोई समस्या नहीं होगी लेकिन मुसलमानों की दिक्कत बनी रहेगी।
 
एनआरसी डेटा के पब्लिश होने के एक-डेढ़ महीने पहले ही ये प्रचार शुरू हो गया था कि इसके जारी होते ही असम में व्यापक पैमाने पर हिंसा हो सकती है। सुरक्षा इंतजाम कड़े कर दिए गए, आर्मी अलर्ट पर रखी गई है। बीजेपी ने यहां बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के बीच हिंदू-मुस्लिम की विभाजन रेखा खींच दी है।
 
ये कहा जा रहा है कि हिंदुओं के लिए अवैध घुसपैठ माफ है जबकि मुसलमानों के लिए ऐसा नहीं होगा। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के लिए राजनीतिक कोशिशें की जा रही हैं। बीजेपी ये चाहती है कि बांग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिक का दर्जा देने से असम हिंदू बहुल राज्य बना रहेगा।
 
लेकिन सत्तारूढ़ बीजेपी की इस कोशिश के समांतर एक विरोधी विचारधारा भी पनप रही है। ऐसे लोग असमिया भाषा को मुद्दा बना रहे हैं। उनका कहना है कि बांग्ला भाषा बोलने वाले लोगों की तादाद बढ़ जाने से राज्य में असमिया भाषा पर खतरा हो सकता है। इसी वजह से राजनीतिक तनाव के साथ-साथ सामाजिक तनाव भी पैदा हो रहा है।
 
(गुवाहाटी के वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार बैकुंठ गोस्वामी से बीबीसी संवाददाता मोहम्मद शाहिद की बातचीत पर आधारित।)

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