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आज है बसवेश्वर जयंती, जानिए कौन है ये महात्मा

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शुक्रवार, 14 मई 2021 (10:17 IST)
14 मई 2021 को लिंगायत समाज के दार्शनिक और समाज सुधारक बसवेश्वर भगवान की जयंती है। संत बसवेश्वर का जन्म 1131 ईसवी में कर्नाटक के संयुक्त बीजापुर जिले में स्थित बागेवाडी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस दौर में ऊंच-नीच और भेदभाव बहुत था। संत ने इस सामाजिक विभाजन को मिटाने हेतु जहां जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी वहीं उन्होंने नारी प्रताड़ना को खत्म करने के लिए भी लड़ाई लड़ी।

 
8 वर्ष की उम्र में उन्होंने उपनयन संस्कार के बाद अपनी जनेऊ को उदार दिया था और जाति आधारित समाज की जगह कर्म आधारित समाज व्यवस्था पर बल दिया था। उन्होंने मठों, मंदिरों में फैली कुरीतियों, अंधविश्वासों और अमीरों की सत्ता को चुनौती दी। उन्हें विश्व गुरु, भक्ति भंडारी और बसव भी कहा जाता है। उन्होंने लिंग, जाति, सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना सभी लोगों को बराबर अवसर देने की बात कही थी वह निराकार भगवान की अवधारणा के एक समर्थक हैं।
 
उन्होंने कुरीतियों को हटाने के लिए एक नए संप्रदाय की स्थापना की, जिसका नाम लिंगायत रखा गया। संत बसवेश्वर भगवान शिव के निराकार शिवलिंग रूप की आराधना करते थे। इसीलिए इसे प्रारंभ में शैव संप्रदाय से जोड़कर माना गया।
 
बसेश्वर के जाने के बाद यह संप्रदाय पहले हिंदू वैदिक धर्म का ही पालन करने लगा और बाद में इनके अनुयायियों ने खुद को शिवलिंग की पूजा से अलग करके इष्टलिंग को ही पूजा का आधार बनाया। कर्नाटक में हिंदुओं के मुख्‍यत: पांच संप्रदाय माने जाते हैं जिन्हें क्रमश: शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक और स्मार्त के नाम से जाना जाता है। इन्हीं में एक शैव संप्रदाय के कई उप-संप्रदाय है उसमें से एक है वीरशैव संप्रदाय। लिंगायत इसी वीरशैव संप्रदाय का कभी हिस्सा थे, लेकिन उन्होंने अब खुद को स्वतंत्र संप्रदाय घोषित कर दिया है। 
 
जब वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कश्मीरी शैव संप्रदाय की नींव डाली थी। हालांकि इससे पूर्व यहां बौद्ध और नाथ संप्रदाय के कई मठ थे। वसुगुप्त के दो शिष्य थे कल्लट और सोमानंद। इन दोनों ने ही शैव दर्शन की नई नींव रखी जिसे मानने वाले कम ही रह गए हैं। वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है जिन्हें पाशुपत, काल्पलिक, कालमुख और लिंगायत नाम से जाना जाता है।
 
वर्तमान में प्रचलित लिंगायत संप्रदाय, प्राची लिंगायत संप्रदाय का ही नया रूप है। लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम बी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की उपासना करते हैं। इनका वैदिक क्रियाकांड में विश्वास नहीं है। बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक उल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशैव संप्रदाय भी कहा जाता है।
 
बासव को कर्नाटक में बासवेश्वरा नाम से भी जाना जाता है। बासव जन्म से ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म में मौजूद जातिवाद और कर्मकांड के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। हालांकि वर्तमान में लिंगायतों में ही 99 जातियां हो चली हैं जिनमें से आधे से ज्यादा दलित या पिछड़ी जातियों से हैं। लेकिन लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं। पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है।
 
बारहवीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना (उन्हें भगवान बासवेश्वरा भी कहा जाता है) ने हिंदू जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। लिंगायत अपने शरीर पर इष्टलिंग या शिवलिंग धारण करते हैं। पहले लिंगायत इसको निराकार शिव का लिंग मानते थे लेकिन वक्त के साथ इसकी परिभाषा बदल गई। अब वे इसे इष्टलिंग कहते हैं और इसे आंतरिक चेतना का प्रतीक मानते हैं।
 
मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही लोग होते हैं। लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते। उनका मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था। वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि लिंगायत भगवान शिव की पूजा नहीं करते, लेकिन भीमन्ना खांद्रे जैसे विचारक का कहना है कि वीरशैव और लिंगायतों में कोई अंतर नहीं है। भीमन्ना ऑल इंडिया वीरशैव महासभा के अध्यक्ष पद पर 10 साल से भी ज्यादा समय तक रहे हैं।

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